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________________ सम्याज्ञान १०९ यही नहीं, पहले और दूसरे भंग मे जिन अस्तित्व और नास्तित्व का विधान किया है, उनका भी एक साथ कयन नही हो सकता। यही बतलाने के लिए चौथा भंग है। ५. अस्ति, अवक्तव्य --स्वरूप से सत् होने पर भी वस्तु समग्र रूप से अवक्तव्य है। ६ नास्ति अवक्तव्य-पर रूप ने असत् होते हुए भी वस्तु समग्र रूप में प्रवक्तव्य है। ७ अस्तिनास्ति, अवक्तव्य ---स्वरूप से सत् और पररूप से असत् होने पर भी वस्तु समग्र रूप में अवक्तव्य है। इस विषय को व्यावहारिक पद्धति से समझने के लिए एक स्थूल उदाहरण दिया जाता है। आप किसी रोगी की हालत पूछने के लिए गए। आपने पूछा "रोगी का क्या हाल है ?" इस प्रश्न का उत्तर सात विकल्पो (भंगो) मे यो दिया जा सकता है :-- १ स्वास्थ्य ठीक है (अस्ति)। २. अभी अवस्था ठीक नहीं (नास्ति)। ३. कल से अव ठीक है, तो भी भय से मुक्त नही (अस्तिनास्ति)। ४. कुछ कहा नही जा सकता कि हालत ठीक है, या नही (अवक्तव्य)। ५. हालत कुछ ठीक है; परन्तु कहा नही जा सकता कि आखिर क्या होगा? (अस्ति अवक्तव्य)। ६ हालत ठीक नही, नही कहा जा सकता कि आखिर क्या होगा (नास्ति अवक्तव्य) । ७ हालत कल से ठीक है, फिर भी ठीक नही कही जा सकती। नही कह सकते आखिर क्या होगा ? (अस्तिनास्ति अवक्तव्य)। इस प्रकार वस्तु मे रहे हुए प्रत्येक धर्म का सात प्रकार से कथन हो सकता है । जैसे अस्तित्व धर्म के सात भग ऊपर वतलाए गए है, उसी प्रकार नित्यत्व, एकत्व आदि धर्मों को लेकर भी होते है। पूर्वोक्त रीति से उन्हे समझा जा सकता है। विश्व की विचारधाराए एकान्त के कीचड मे फसी है । कोई वस्तु को एकान्त नित्य मानकर चल पड़ा है तो दूसरा एकान्त अनित्यता का समर्थन
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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