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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [६९ हेतु-क्योंकि सन्देह है। 'सन्देह है' यह निश्चय नहीं है। इसका व्याप्य है। इसलिए सन्देह-दशा में निश्चय का अभाव होगा । ये दोनो विरोधी हैं । (३) विरुद्ध-कार्य-उपलब्धि :साध्य-इस पुरुष का क्रोध शान्त नही हुआ है। हेतु-क्योंकि मुख-विकार हो रहा है । मुख-विकार क्रोध की विरोधी वस्तु का कार्य है। (४) विरुद्ध-कारण-उपलब्धि :साध्य-यह महर्षि असत्य नहीं बोलता। हेतु-क्योकि इसका ज्ञान राग-द्वेष की कलुषता से रहित है । यहॉ असत्य-वचन का विरोधी, सत्य-वचन है और उसका कारण राग-द्वेप रहित शान-सम्पन्न होना है। (५) अविरुद्ध-पूर्वचर उपलब्धि :साध्य-एक मूहर्त के पश्चात् पुष्य नक्षत्र का उदय नहीं होगा। हेतु-क्योकि अमी रोहिणी का उदय है। यहाँ प्रतिषेध्य पुष्य नक्षत्र के उदय से विरुद्ध पूर्वचर रोहिणी नक्षत्र के उदय की उपलब्धि है । रोहिणी के पश्चात् मृगशीर्ष, आर्द्रा और पुनर्वसु का उदय होता है । फिर पुण्य का उदय होता है। (६) विरुद्ध-उत्तरचर-उपलब्धि :साध्य-एक मुहूर्त के पहिले मृगशिरा का उदय नही हुआ था। . हेतु-क्योकि अभी पूर्वा-फाल्गुनी का उदय है। यहाँ मृगशीर्ष का उदय प्रतिषेध्य है । पूर्वा-फाल्गुनी का उदय उसका विरोधी है । मृगशिरा के पश्चात् क्रमशः आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेपा, मघा और पूर्वा फाल्गुनी का उदय होता है। (७) विरुद्ध-सहचर-उपलब्धि :साध्य-इसे मिथ्या भान नहीं है। हेतु-क्योकि सम्यग् दर्शन है। मिथ्या ज्ञान और सम्यगु दर्शन एक साथ नहीं रह सकते ।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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