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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [२७ फिर भी उसे यह सन्देह हो सकता है कि यह घर मेरे मित्र का है या किसी दूसरे का ? उस समय किसी जानकार व्यक्ति से पूछने पर प्रथम ज्ञान की सचाई मालूम हो जाती है। यहाँ ज्ञान की सचाई का दूसरे की सहायता से पता लगा, इसलिए यह परतः प्रामाण्य है। विशेष कारण सामग्री के दो प्रकार है-(१) संवादक प्रमाण अथवा (२) बाधक प्रमाण का अभाव । जिस प्रमाण से पहले प्रमाण की सचाई का निश्चय होता है, उसका प्रामाण्य-निश्चय परतः नही होता। पहले प्रमाण के प्रामाण्य का निश्चय कराने वाले प्रमाण की प्रामाणिकता परतः मानने पर प्रमाण की शृङ्खला का अन्त नहीं होता और न अन्तिम निश्चय ही हाथ लगता है। संवादक प्रमाण किसी दूसरे प्रमाण का ऋणी बन कर सही जानकारी नहीं देता । कारण कि उसे जानकारी देने के समय उसका ज्ञान करना नहीं है। अतः उसके लिए स्वतः या परतः का प्रश्न ही नहीं उठता। "प्रामाण्य का निश्चय स्वतः और परतः होता है२२," यह विभाग विषय (ग्राह्यवस्तु) की अपेक्षा से है । ज्ञान के स्वरूप ग्रहण की अपेक्षा उसका प्रामाण्य निश्चय अपने आप होता है। अयथार्थ ज्ञान या समारोप (विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय ) एक रस्सी के बारे में चार व्यक्तियो के ज्ञान के चार रूप हैं :पहला यह रस्सी है-यथार्थ ज्ञान । दूसरा यह सॉप है--विपर्यय । तीसरा यह रस्सी है या सॉप है १-सशय । चौथा-रस्सी को देख कर भी अन्यमनस्कता के कारण ग्रहण नहीं करताअनध्यवसाय । पहले व्यक्ति का ज्ञान सही है । यही प्रमाण होता है, जो पहले बताया जा चुका है। शेष तीनों व्यक्तियो के ज्ञान में वस्तु का सम्यक निर्णय नहीं होता, इसलिए वे अयथार्थ हैं। विपर्यय२३ विपर्यय निश्चयात्मक होता है किन्तु निश्चय पदार्थ के असली स्वरूप के विपरीत होता है । जितनी निरपेक्ष एकान्त-दृष्टिया होती हैं, वे सब विपर्यय
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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