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________________ २६] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा जाता किन्तु ऐसा होता नहीं । ये दोनो सविशेषण सामग्री से पैदा होते हैं; जैसे गुणवत्-सामग्री से प्रामाण्य और दोषवत्-सामग्री से अप्रामाण्य । अर्थ का परिच्छेद प्रमाण और अप्रमाण दोनो में होता है। किन्तु अप्रमाण (संशय-विपर्यय) में अर्थ-परिच्छेद यथार्थ नहीं होता और प्रमाण में वह यथार्थ होता है। अयथार्थ-परिच्छेद की भाति यथार्थ परिच्छेद भी सहेतुक होता है। दोप मिट जाए, मात्र इससे यथार्थता नहीं आती। वह वब आती है, जब गुण उसके कारण बने। जो कारण बनेगा वह 'पर' कहलाएगा। ये दोनो विशेष स्थिति सापेक्ष है, इसलिए इनकी उत्पत्ति 'पर' से होती है। प्रामाण्य निश्चय के दो रूप स्वतः और परतः२५ जानने के साथ-साथ "यह जानना ठीक है" ऐसा निश्चय होता है, वह स्वतः निश्चय है। जानने के साथ-साथ "यह जानना ठीक है" ऐसा निश्चय नहीं होता तय दूसरी कारण सामग्री से संवादक प्रत्यय से उसका निश्चय किया जाता है, यह परतः निश्चय है (जैन प्रामाण्य और अप्रामाण्य को स्वतः भी मानते है और परतः भी)। स्वतः प्रामाण्य निश्चय विषय की परिचित दशा में ज्ञान की स्वतः प्रामाणिकता होती है। इसमें प्रथम ज्ञान की सचाई जानने के लिए विशेष कारणो की आवश्यकता नहीं होती। जैसे कोई व्यक्ति अपने मित्र के घर कई बार गया हुआ है । उससे भलीमाति परिचित है । वह मित्र गृह को देखते ही निस्सन्देह उसमें प्रविष्ट हो जाता है । "यह मेरे मित्र का घर है" ऐसा ज्ञान होने के समय ही उम जानगत सचाई का निश्चय नही होता तो वह उस घर में प्रविष्ट नहीं होता। परतः प्रामाण्य निश्चय विषय की अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है । शान की कारण सामग्री से उसकी सचाई का पता नही लगता तब विशेष कारणा की सहायता से उसकी प्रामाणिक्ताजानी जाती है, यही परतः प्रमिाण्य है। पहले सुने हुए चिहों के आधार पर अपने मित्र के घर के पास पहुंच जाता है,
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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