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________________ १४) जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा वाद के दोष (१) तज्जात दोष-वादकाल में आचरण आदि का दोष बताना अथवा प्रतिवादी से क्षुब्ध होकर मौन हो जाना। '' (२) मतिभग दोष-तत्त्व की विस्मृति हो जाना। - . (३) प्रशास्तु दोष-समानायक या सभ्य की ओर से होने वाला प्रमाद । (४) परिहरण दोष-अपने दर्शन की मर्यादा या लोक-रूढ़ि के अनुसार अनासेव्य का आसेवन करना अथवा आसेव्य का आसेवन नहीं करना अथवा वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु को सम्यक् प्रतिकार न करना। (५) स्वलक्षण दोष-अन्याप्ति, अतिव्यासि, असम्भव । (६) कारण-दोष-कारण ज्ञात न होने पर पदार्थ को अहेतुक मान लेना1 (७) हेतु-दोष-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिकं । (८) संक्रामण-दोष-प्रस्तुत प्रमेय में अप्रस्तुत 'प्रमेय का समावेश करना अथवा परमत का अज्ञान जिस तत्त्व को स्वीकार नहीं _ . करता उसे उसका मान्य तत्त्व बतलाना। ' (६) निग्रह-दोष :-बल आदि से निगृहीत हो जाना। (१०) वस्तु दोष (पक्ष-दोष) १-प्रत्यक्षनिराकृत-शब्द अश्रावण हैं। २-अनुमान " शब्द नित्य है। ३-प्रतीति , शशी अचन्द्र है। ४- स्व वचन , मैं कहता हूँ, वह मिथ्या है। ५--लोकरूढ़ि. , मनुष्य की खोपड़ी पवित्र है। विवाद३८ । (१) अपसरण-अवसर लाभ के लिए येन-केन प्रकारेण समय बिताना। (२) उत्सुकीकरण-अवसर मिलने पर उत्सुक हो जय के लिए वाद करना। (३) अनुलोमन-विवादाध्यक्ष को 'साम' आदि नीति के द्वारा अनुकूल बनाकर अथवा कुछ समय के लिए प्रतिवादी का पक्ष स्वीकार कर उसे अनुकूल बनाकर वाद करना।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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