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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१५ (४) प्रतिलोमन - सर्व सामर्थ्य - दशा में विवादाध्यक्ष अथवा प्रतिवादी को प्रतिकूल बनाकर, वाद करना । (५.) संसेवन - अध्यक्ष को प्रसन्न रख वाद करना । (६) मिश्रीकरण या मेटन — निर्णय दाताओं में अपने समर्थको को मिश्रित करके अथवा उन्हे ( निर्णय दाताओं को ) - प्रतिवादी का विरोधी बनाकर वाद करना । प्रमाण व्यवस्था का आगमिक आधार ( १ ) प्रमेय : प्रमेय अनन्त धर्मात्मक होता है । इसका आधार यह है कि वस्तु में अनन्त पर्यव होते हैं। (२) प्रमाण :-- प्रमाण की परिभाषा है—व्यवसायी ज्ञान या यथार्थ ज्ञान । इनमें पहली का आधार स्थानात ( ३-३-१८५ ) का 'व्यवसाय' शब्द है । दूसरी का आधार ज्ञान और प्रमाण का पृथक-पृथक् निर्देशन है। ज्ञान यथार्थ और . अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है, इसलिए ज्ञान सामान्य के निरूपण में ज्ञान पांच बतलाये हैं 3 प्रमाण यथार्थ ज्ञान ही होता है । इसलिए यथार्थ ज्ञान के निरूपण में वे दो बन जाते हैं ४० । प्रत्यक्ष और परोक्ष । (३) अनुमान का परिवार : अनुयोग द्वार के अनुसार श्रुतज्ञान परार्थ और शेष सब ज्ञान स्वार्थ हैं । इस दृष्टि से सभी प्रमाण जो ज्ञानात्मक हैं, स्वार्थ हैं और वचनात्मक हैं, वे परार्थ हैं। इसीके आधार पर आचार्य सिद्धसेन, ४ १ वादी देवसूरि प्रत्यक्ष को परार्थ मानते हैं *" | अनुमान, श्रागम आदि की स्वार्थ परार्थ रूप द्विविधता का यही आधार है। (४) प्रमिति : प्रमाण का साक्षात् फल है अज्ञान निवृत्ति और व्यवहित फल है हेयबुद्धि और मध्यस्थबुद्धि | इसका श्राधार श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान और संयम का क्रम है। श्रवण का फल ज्ञान, ज्ञान का विज्ञान, विज्ञान का
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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