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________________ १७४] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा रखते हुए भी अन्य-धर्म-सापेक्ष रहते हैं। इसीलिए कहा गया है- सापेक्ष नय और निरपेक्ष दुर्नय । वस्तु की जितने रूपों में उपलब्धि है, उतने ही नय है। किन्तु वस्तु एक रूप नहीं है, सव स्पो की नो एकात्मकता है, वह जैन दर्शन वस्तु की अनेकरूपता के प्रतिपादन में अनेक दर्शनों के साथ समन्वय करता है, किन्तु उनकी एकरूपता फिर उसे दूर या विलग कर देती है। जैन दर्शन अनेकान्त-दृष्टि की अपेक्षा स्वतन्त्र है । अन्य दर्शन की एकान्तदृष्टियों की अपेक्षा उनका संग्रह है। "सन्मति” और अनेकान्त-व्यवस्था के अनुसार नयामास के उदाहरण (१) नैगम-नयामास...नैयायिक, वैशेषिक। (२) संग्रह-नयाभास..... वेदान्त, सांख्य ।। (३) व्यवहार-नयाभास..... सांख्य, चार्वाक। । () जुसूत्र--नवाभास..... सौत्रान्तिक । (५) शब्द-नयाभास.. शब्द-ब्रह्मवाद, वैभाषिक । (६) सममिर नयाभास..... योगाचार । (७) एवम्भूत-नयाभास...... माध्यमिक। (१) जानने वाला व्यक्ति सामान्य, विशेष-इन दोनों में से किसी को, जिस समय जिसकी अपेक्षा होती है, उसी को मुख्य मानकर प्रवृत्ति करता है। इसलिए सामान्य और विशेष की मिन्नता का समर्थन करने में जैन-दृष्टि न्याय, वैशेषिक से मिलती है, किन्तु सर्वथा भेद के समर्थन में उनसे अलग हो जाती है। सामान्य और विशेष में अत्यन्त मेद की दृष्टि दुर्नय है, तादात्म्य की अपेक्षा मेद की दृष्टि नय। विशेष का व्यापार गौण, सामान्य मुख्य...अभेद | सामान्य का व्यापार गौण, विशेष मुख्य.. भेद । (२) सत् और असत् मे तादात्म्य सम्बन्ध है। सत्-असत् अंश धर्मी स्प से अभिन्न है -सत्-असत् रूप वाली वस्तु एक है। धर्म रूप में वे भिन्न हैं।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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