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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा १७५ (विशेष को गौण मान सामान्य को मुख्य मानने वाली दृष्टि नय है, केवल सामान्य को खीकार करने वाली दृष्टि दुर्नय। भावैकान्त का आग्रह रखने १ वाले दर्शन साख्य और अद्वैत हैं। संग्रह दृष्टि में मावैकान्त और अमावैकान्त (शल्यवाद) दोनो का सापेक्ष खीकरण है। (३) व्यवहार-नय-लोक-व्यवहार सत्य है, यह दृष्टि जैन दर्शन को मान्य है। उसी का नाम है व्यवहार-नय । किन्तु स्थिर-नित्य वस्तु-खरूप का लोपकर, केवल व्यवहार-साधक, स्थूल और कियत्कालभावी वस्तुओं को ही तात्त्विक मानना मिथ्या आग्रह है। जैन दृष्टि यहाँ चार्वाक से पृथक् हो जाती है। वर्तमान पर्याय, आकार या अवस्था को ही वास्तविक मानकर उनकी अतीत या भावी पर्यायो को और उनकी एकात्मकता को अस्वीकार कर चार्वाक निहतुक वस्तुवादी बन जाता है। निर्हेतुक वस्तु या तो सदा रहती है। या रहती ही नही। पदार्थों की जो कादाचित्क स्थिति होती है, वह कारणसापेक्ष ही होती है। (४) पर्याय की दृष्टि से ऋजुसूत्र का अभिप्राय सत्य है किन्तु बौद्ध दर्शन फेवल पर्याय को ही परमार्थ सत्य मानकर पर्याय के आधार अन्वयी द्रव्य को अस्वीकार करता है, यह अभिप्राय सर्वथा ऐकान्तिक है, इसलिए सत्य नहीं है। (५-६७) शब्द की प्रतीति होने पर अर्थ की प्रतीति होती है, यह सत्य है, किन्तु सब्द की प्रतीति के विना अर्थ की प्रतीति होती ही नहीं, यह एकान्तवाद मिथ्या है। शब्दाद्वैतवादी शान को शब्दात्मक ही मानते हैं। उनके मतानुसार"ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जो शब्द ससर्ग के बिना हो सके। जितना ज्ञान है, वह सब शब्द से अनुविद्ध होकर ही भासित होता है । जैन-दृष्टि के अनुसार-"ज्ञान शब्द-संश्लिष्ट ही होता है"--यह उचित नहीं ५। कारण, शब्द अर्थ से सर्वथा अभिन्न नहीं है। अवग्रह-काल में शब्द के बिना भी वस्तु का ज्ञान होता है । वस्तुमात्र सवाचक भी नहीं है। सूक्ष्म-पर्यायो के संकेत-ग्रहण का कोई उपाय नहीं होता, इसलिए वे अनमिलाप्य होती है। शब्द अर्थ का वाचक है किन्तु यह शब्द इसी अर्थ का वाचक है, दूसरे
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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