SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में प्रमाण भीमांसा [१७३ (३) सोना क्रमशः एक है, अनेक है......(दो धमों का क्रमशः प्रतिपादन) (४) सोना युगपत् “एक अनेक है" यह अवक्तव्य है। ( दो धर्मों का एक साथ प्रतिपादन असम्भव) (५) सोना एक है-अवक्तव्य है। । एक साथ दो धर्म नही कहे (६) सोना अनेक है-अवक्तव्य है। रजा जाते, फिर भी उनके साथ } एकता अनेकता का प्रतिपादन (७) सोना एक, अनेक-अवक्तव्य है। हो सकता है। प्रकारान्तर से ४५:(१) कुम्भ है • एक देश में ख-पर्याय से। (२) कुम्भ नहीं है. एक देश में पर-पर्याय से । (३) कुम्भ अवक्तव्य है...एक देश में स्व-पर्याय से, एक देश मे पर-पर्याय से, युगपत् दोनो कहे नही जा सकते। (1) कुम्म अवक्तव्य है। (५) कुम्भ है, कुम्भ अवक्तव्य है। (६) कुम्भ नहीं है, कुम्भ अवक्तव्य है । (७) कुम्भ है, कुम्म नहीं है, कुम्भ अवक्तव्य है। प्रमाण-सप्तभड़ी में एक धर्म की प्रधानता से धी-वस्त का प्रतिपादन होता है और नय-ससमनी में केवल धर्म का प्रतिपादन होता है। यह दोनो में, अन्तर है । सिद्धसेनगणी आदि के विचार मे अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य-ये तीन ही मन विकलादेश हैं, शेष (चार) मग अनेक धर्मवाली वस्तु के प्रतिपादक होते हैं, इसलिए वे विकलादेश नहीं होते। इसके अनुसार नय की त्रिमङ्गी ही बनती है।) आचार्य अकलंक, तुमाश्रमण जिनभद्र आदि ने नय के सातो भङ्ग-माने हैं:ऐकान्तिक आग्रह या मिथ्यावाद अपने अभिप्रेत धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला विचार दुर्नय होता है। कारण, एक धर्म वाली कोई वस्तु है ही नहीं। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। इसलिए एक धर्मात्मक वस्तु का आग्रह सम्यग नहीं है। नय इसलिए सम्यग्-शान है कि वे एक धर्म का आग्रह
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy