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________________ १४] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा - - पर प्रतीति के लिए अनुमान या प्रत्यक्ष किसी के द्वारा ज्ञात अर्थ कहा जाए, वह परार्थ श्रुत ही होगा। जेनेतर दर्शन केवल अनुमान वचन को ही परार्थ मानते हैं। आचार्य -सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष वचन को भी परार्थ माना है । "धूम है, इसलिए अमि है"यह बताना जैसे परार्थ है, वैसे ही "देख, यह राजा जा रहा है" यह भी परार्थ है । पहला अनुमान वचन है, दूसरा प्रत्यक्ष वचन । जहाँ वचन बनता -है, वहाँ परार्थता अपने आप बन जाती है.। वचन-व्यवहार का वर्गीकरण वचन-व्यवहार के अनन्त मार्ग है किन्तु उनके वर्ग अनन्त नहीं हैं। उनके मौलिक वर्ग दो हैं : (१) भेद-परक। --- (२) अभेद-परक। भेद और अमेद-ये दोनो पदार्थ के भिन्नामिन्न धर्म हैं। न अभेद से भेद सर्वथा पृथक् होता है और न मेद से अमेद । नाना रूपी में वस्तु-सत्ता एक है और एक वस्तु-सत्ता के नाना रूप हैं। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु हे, वह सत् है और जो सत् नहीं, वह अवस्तु है-कुछ भी नहीं है। सत् है-- उत्पाद, व्यय और प्रौव्य की मर्यादा। इसका अतिक्रमण करे, ऐसी कोई वस्तु नहीं है। इसलिए सत् की दृष्टि से सब एक हैं-उत्पाद, व्यय-प्रौव्यात्मक है। विशेष धर्मों की अपेक्षा से एक नहीं है। चेतन और अचेतन में अनैक्य हैमेद है। चेतन की देश-काल-कृत अवस्थाओ में भेद है फिर भी चेतनता की दृष्टि से सब चेतन एक हैं। यूं ही अचेतन के लिए समझिए। उत्पाद, व्यय और प्रौव्यात्मक सत्ता प्रत्येक वस्तु का स्वरूप है किन्तु वह वस्तुत्री की उत्पादक या नियामक सत्ता नहीं है। वस्तु मात्र में उसकी उपलब्धि है, इसीलिए वह एक है । वस्तु-स्वरुप से अतिरिक्त दशा में व्यास होकर वह एक नहीं है। अनेकता भी एक सत्ता के विशेष स्वरूप से उद्भूत विविध रूप वाली नहीं है। वह सत्तात्मक विशेष स्वरूपवाली वस्तुओं की विविध अवस्थाओं से उत्पन्न होती है, इसीलिए वस्तु का स्वरूप सर्वथा एक या अनेक नहीं बनता। नय-वाक्य वस्तु प्रतिपादन की पद्धति है। सत्तात्मक
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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