SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१४७ न मिले। परिवर्तन का कारण भी विश्व के शाश्वतिक नियम की उपेक्षा नही कर सकता और परिवर्तन क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप मे ही होगा, अन्यथा नही। इस प्रकार ये सब एक दूसरे से सापेक्ष बन कार्य-सिद्धि के निमित्त बनते हैं। ___नय-दृष्टि के अनुसार न देव को सीमातिरेक महत्त्व दिया जा सकता है और न पुरुषार्थ को। दोनो तुल्य हैं। (आत्मा के व्यापार से कर्म संचय होता है, वही दैव या भाग्य कहलाता है। पुरुषार्थ के द्वारा ही कर्म का संचय होता है और उसका भोग (विपाक ) भी पुरुषार्थ के बिना नहीं होता। अतीत का दैव वर्तमान पुरुषार्थ पर प्रभाव डालता है और वर्तमान पुरुषार्थ से भविष्य के कर्म संचित होते हैं। पलवान पुरुषार्थ संचित कर्म को परिवर्तित कर सकता है और बलवान कर्म पुरुषार्थ को भी निष्फल बना सकते हैं। संसारोन्मुख दशा में ऐसा चलता ही रहता है। आत्म-विवेक जगने पर पुरुषार्थ में सत् की मात्रा बढ़ती है, तब वह कर्म को पछाड़ देता है और पूर्ण निर्जरा द्वारा आत्मा को उससे मुक्ति भी दिला देना है। इसलिए कर्म या भाग्य को ही सब कुछ मान जो पुरुषार्थ की अवहेलना करते हैं, वह दुर्नय है और जो व्यक्ति अतीत-पुरुषार्थ के परिणाम रूप भाग्य को स्वीकार नहीं करते, वह भी दुनय है । स्वार्थ और परार्थ पाच ज्ञानो में चार ज्ञान मूक है और श्रुत शान अमूक । 'जितना वार्ण व्यवहार है, वह सव श्रुत ज्ञान का है २१। इसके तीन भेद हैं : (१) स्याद्वाद-श्रुत। (२) नय-श्रुत २॥ (३) मिथ्या श्रुत या दुर्नय श्रुत। शेष चार ज्ञान स्वार्थ ही होते हैं। श्रुत स्वार्थ और परार्थ दोनों होता है; शानात्मवश्रुत स्वार्थ और वचनामवभुत परार्थ । नय वचनात्म्क त के भेद हैं, इसलिए कहा गया है-"जितने बचनपथ है, उठने हो नय है २३१७
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy