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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा 1989 अखण्ड वस्तु 'जगत्' और विशेष स्वरूपात्मक अखण्ड वस्तु 'द्रव्य' वस्तुवृत्त्या अवक्तव्य हैं । इसलिए नय के द्वारा क्रमिक प्रतिपादन होता है । कभी वह सत्तात्मक या द्रव्यात्मक सामान्यधर्म का प्रतिपादन करता है और कभी विशेष स्वरूपात्मक पर्याय धर्म का । सामान्य विशेष दोनो पृथक् होते नहीं, इसलिए सामान्य की विवक्षा मुख्य होने पर विशेष और विशेष की विवक्षा मुख्य होने पर सामान्य गौण बन जाते है। देखिए - जागतिक व्यवस्था की कितनी सामञ्जस्यपूर्ण स्थिति है । इसमें सबको अवसर मिलता है। दोनो प्रधान रहे, यह विरोध की स्थिति है । दोनों अप्रधान बन जाए, तब काम नहीं बनता । अविरोध की स्थिति यह है कि एक दूसरे को अवसर दे, दूसरे की मुख्यता मे सहिष्ण बने । नेयबाद इसी प्रक्रिया मे सफल हुआ है। 1 नयवाद की पृष्ठभूमि विभिन्न विचारों के संघर्षण से स्फुलिङ्ग बनते हैं, ज्योतिपुल से विलग हो नभ को छूते है, क्षण में लीन हो जाते हैं - यह एकांगी दृष्टि-बिन्दु का चित्र है । नय एकांगी दृष्टि है। किन्तु ज्योतिपुञ्ज से पृथक् जा पड़ने वाला स्फुलिङ्ग नही । वह समग्र में व्याप्त रहकर एक का ग्रहण या निरूपण करता है । ૨. बौद्ध कहते हैं—-रूप आदि अवस्था ही वस्तु - द्रव्य है । रूप आदि से भिन्न सजातीय क्षण परम्परा से अतिरिक्त द्रव्य - वस्तु नहीं है" ५ । वेदान्त का अभिमत है - यही वस्तु है, रूप आदि गुण ताविक नहीं हैं " । बौद्ध की दृष्टि में गुणों का आधार-द्रव्य ताविक नहीं, इसलिए, भेद सत्य है । वेदान्त की दृष्टि में द्रव्य के आधेय गुण तात्त्विक नहीं, इसलिए श्रमेद सत्य है । प्रमाण सिद्ध अभेद का लोप नहीं किया जा सकता, इसलिए बौद्धों को सत्य के दो रूप मानने पड़े- (१) संवृत्ति (२) परमार्थ । भेद की दिशा मे वेदान्त की भी यही स्थिति है । उसके अनुसार जगत् या प्रपंच प्रातीतिक सत्य है और ब्रह्म वास्तविक सत्य । भेद और मेद के द्वन्द्व का यह एक निदर्शन है। यही नयवाद की पृष्ठभूमि है - नयवाद अभेद और भेद- इन दो वस्तु धर्मों पर टिका हुआ है। इसके अनुमार वस्तु अभेद और भेद की समष्टि है। इसलिए अमेट भी सत्य है
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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