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________________ [ ६७ ] कर्म कड़वे रस से वन्ध होते हैं और कितने कर्म मीठे रस से बन्ध होते हैं, इस प्रकार विचित्र रूप से कर्म वन्ध होते हैं यह इसका रसबन्ध कहलाता है। कोई कर्म अतिगाढ रूप से बन्ध होता है, कोई गाढ रूप से, कोई शिथिलरूप से और कोई अतिशिथिल रूप से बन्ध होता है, अर्थात् कोई कर्म हल्का और कोई कर्म भारी इसे प्रदेशवन्ध कहते हैं। कर्म के सम्बन्ध मे हम पहले वर्णन कर चुके हैं इसलिये यहां विशेष वर्णन नहीं किया जाता। ८निर्जरा--बाँधे हुए कर्मो का क्षय करना-कर्मों का भोगने के बाद बिखर जाना इसका नाम निर्जरा है। कर्म दो प्रकार से विखर जाते हैं जुदा होते हैं। मेरे कर्मों का क्षय हो ऐसी बुद्धि पूर्वक ज्ञान-ध्यान-तप-जप आदि करने से कर्म छूटते हैं, इसको सकामनिर्जरा कहते हैं। और कितने ही कर्म अपना काल पूरा होने पर इच्छा के विना ही स्वयं अपने आप जुदा हो जाते हैं-इसे अकामनिर्जरा कहते हैं। १ मोक्ष--मोक्ष अर्थात् मुक्ति अथवा छुटकारा। संसार से आत्मा का मुक्त होना, इसका नाम मोक्ष है। मोक्ष का 'लक्षण' कृत्स्नकर्मक्षयो हि मोक्षः । __ आत्मा ने जो कर्म बांधे हुए होते है, उनमे से घातिको (ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-अन्तराय और मोहनीय ) का क्षय होते ही जीव को कैवल्य-केवलज्ञान उत्पन्न होता है। यह
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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