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________________ [ ६६ ] दान के हेतु को आश्रव कहते हैं। कर्मों का उपार्जन मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग द्वारा होता है। वस्तु स्वरूप से विपरीत प्रतिभास को मिथ्यात्व कहते है हिंसा-अनृतादि दूर न होने को अपिरित कहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कपाय है। और मन-वचन-काया का व्यापार योग कहलाता है इसमे शुभयोग पुण्य का और अशुभयोग पाप का ६ संवर-आते हुए कर्मों को जो रोकता है उसे संवर कहते हैं। संवर यह धर्म का हेतु है। पुण्य और संवर मे थोड़ा सा ही अन्तर है। पुण्य से शुभकर्मों का वन्ध होता है तथा संवर आते हुए कर्मों को रोकने का कार्य करता है। ७ बन्ध-कर्म का आत्मा के साथ बन्ध होना-लग जाना, इसको वन्ध कहते हैं कर्म के पुद्गल संपूर्णलोक में ठोस ठोस कर भरे है। आत्मा मे राग-द्वेष की चिकनाहट के कारण ये पुद्गल आत्मा के साथ लग जाते हैं। यह बन्ध चार प्रकार का है। १ प्रकृतिवन्ध, २ स्थितिवन्ध, ३ रसबन्ध, ४ प्रदेशवन्ध । कर्म के मूल ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकार, यह इसका प्रकृतिवन्ध है। कर्म वन्धन समय इसकी स्थिति अर्थात् ' इस कर्म का विपाक कितने समय तक भोगना पड़ेगा, यह भी निर्माण होता है, इसका नाम स्थितिवन्ध है। कितने
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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