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________________ [ ५७ ] कहता है और किसी प्रकार से अभावरूप भी कहता है इसी प्रकार कोई दर्शन आत्मा को 'ज्ञानस्वरूप कहता है और कोई 'ज्ञानाधारस्वरूप' कहता है इस अवस्था में क्या कहना चाहिये ? अनेकान्तवाद ने स्थान प्राप्त किया इस प्रकार कोई ज्ञान को 'द्रव्यस्वरूप' मानता है तो कोई 'गुणस्वरूप' मानता है, कोई जगत को 'भावस्वरूप' कहता है कोई 'शुन्यस्वरूप' तव तो 'अनेकान्तवाद' अनायास सिद्ध हुआ।" । इसी प्रकार काशी विश्वविद्यालय के प्रिंसीपल प्रो० आनन्दशंकर बापुभाई ध्रव ने अपने एक बार के व्याख्यान में 'स्याद्वाद' सम्बन्धी कहा था कि : "स्याद्वाद, हमारे सामने एकीकरण का दृष्टिविन्दु उपस्थित करता है। शंकराचार्य ने स्याद्वाद पर जो आक्षेप किया है वह मूल रहस्य के साथ सम्बन्ध नहीं रखता। यह निश्चय है कि-विविध दृष्टि विन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये विना कोई भी वस्तु संपूर्ण स्वरूप से समझी नहीं जा सकती। इसलिये 'स्याद्वाद' उपयोगी तथा सार्थक है। महावीर के सिद्धान्त में बताये हुए स्याद्वाद को कई लोग संशयवाद कहते हैं इस बात को मैं स्वीकार नहीं करता। स्याद्वाद संशयवाद नहीं है किन्तु यह हमे एक प्रकार की दृष्टिविन्दु प्राप्त कराता है कि विश्व को किस प्रकार अवलोकन करना चाहिये।" ८
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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