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________________ [ ५६ ] यहा पराशर महर्षि कहता है : - ' वस्तु वस्त्वात्मक नहीं है' इसका अर्थ ही यह है कि कोई वस्तु एकान्त से एक रूप नहीं हैं । जो वस्तु एक समय सुख का हेतु है, वही दूसरे क्षण में दुःख का कारण बनती है, तथा जो वस्तु कोई समय दुःख का कारण है वही वस्तु क्षण भर मे सुख का कारण भी होती है । सज्जनो | आप समझ गये होंगे कि यहा स्पष्ट रूप से अनेकान्तवाद को स्वीकार किया गया है। एक दूसरी बात पर भी ध्यान दे, कि जो 'सदसद्द्भ्यामनिर्वचनीयं जगत् ' कहते हैं, इसको भी यदि विचारदृष्टि से देखा जाय तो अनेकान्तवाद मानने मे बाधा नहीं आती क्योंकि वस्तु को सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते तो कहना पढ़ेगा कि किसी प्रकार से 'सत्' होकर भी किसी प्रकार से 'असत्' है इसलिये न तो 'सत्' कह सकते हैं और न 'असत्' । अब तो अनेकान्तता मानना सिद्ध हुआ ? सज्जनो । नैयायिक 'तम' को तेजोऽभावस्वरूप कहते है तथा मीमासिक और वैदान्तिक इसका खंडन कर इसको 'भावस्वरूप' कहते है। तो अव विचार करने का स्थान है कि आज तक इसका कुछ भी निर्णय नहीं हो सका कि कौन ठीक कहता है ? तब तो दो की लड़ाई मे तीसरे का पौ बारह है अर्थात् जनसिद्धान्त सिद्ध हुआ क्योंकि वह कहता है कि- 'वस्तु अनेकान्त है । यह इसको किसी प्रकार से भावरूप
SR No.010196
Book TitleJagat aur Jain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri, Hiralal Duggad
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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