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________________ जयशंकर 'प्रसाद' शीतल छाया में श्राकर विश्राम लेते हैं। प्रसाद के नाटकों में प्रेम एक अनुपम अवलम्ब है-दो हृदयों के बीच प्रेम की निर्मल, शीतल, गद्गद् और आकुलता-भरी धारा बह रही है। यही आहत जीवन को हरा-भरा किये है-संघर्ष की जलन भरी धरती पर यही एक बसन्त है। प्रसाद का प्रेम प्रथम दर्शन में ही हो जाता है। रङ्गीन पुतलियाँ जब श्राकर कातर अनुनय-भरी भावुक पलकों में अचानक मौकती हैं तो हृदयधड़कन को गवाही में प्रेम का आदान-प्रदान होता है। सभी नाटकों में प्रेम का उदय इसी रूप-दर्शन,-मधु-पान से प्रारम्भ होता है। चन्द्रलेखाविशाख, बाजिग-अजातशत्र , मणिमाला-जनमेजय, विजया-स्कन्दगुप्त, कार्नेलिया-चन्द्रगुप्त, अलका-सिंहरण श्रादि सभी का प्रेम प्रथम दर्शन में ही होता है। कौशल के बन्दीगृह में अजात को बाजिरा देखती है। उस पर मुग्ध हो जाती है । अजात भी उसको अपना हृदय दे डालता है और उसका विद्रोही हृदय अभिभूत हो जाता है। बाजिरा आत्म-समर्पण कर देती है-"तब प्राणनाथ, मैं अपना सर्वस्व तुम्हें समर्पण करती हूँ।" इसी प्रकार शत्र -कन्या के रूप-गुण पर जनमेजय भी मोहित होता है । तपोवन में जनमेजय की भेंट नाग-कन्या मणि-माला से होती है। दोनों परस्पर मुग्ध हो जाते हैं। शत्रता भूलकर प्रेम का अंकुर उग उठता है । जनमेजय कहता है। "किन्तु मै तो तुम-सी नागकुमारी की प्रजा होना भी अच्छा समझता हूँ।" जनमेजय के चले जाने पर मणि-माला भी अपना प्रेम व्यक्त करती है___“ऐसी उदारता-व्यंजक मूर्ति, ऐसा तेजोमय मुख-मण्डल ! यह तो शत्रुता करने की वस्तु नहीं है ।.........किन्तु यहाँ तो अन्तःकरण में एक तरह की गुदगुदी होने लग गई।" यह गदगुदी उसी प्रेम की करवट है-उसी की मीठीमीठी धड़कन है। अवन्ती-दुर्ग में स्कन्दगुप्त को देखकर विजया कहती है-"ग्रहा कैसी भयानक और सुन्दर मूर्ति है ।" और स्कन्दगुप्त भी उसकी लावण्य-पगी मूर्ति अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर लेता है। चन्द्रगप्त-कार्नेलिया का प्रेम भी इसी प्रकार का है और अलका तथा सहरण का भी। फिलिपस बलात् कार्नेलिया का हाथ चूमना चाहता है। सहसा चन्द्रगुप्त प्रकट होकर कार्नेलिया की रक्षा करता है । दोनों के चले जाने पर कार्नेलिया कहती है-“एक घटना हो गई, फिलिपस ने विनती की उसे भूल जाने की, किन्तु उस घटना से किसी और का भी सम्बन्ध है, उसे कैसे भूल जाऊँ।" अलका भी सिंहरण की
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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