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________________ हिन्दी के नाटककार निर्भयता पर मुग्ध होकर कहती है- "इस वन्य निर्भर के समान स्वच्छ और स्वच्छन्द हृदय में कितना बलवान वेग है यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है।" प्रथम दर्शन के प्रेम के दो भिन्न परिणाम होते हैं। एक तो वह पूर्ण विकसित सफल दाम्पत्य जीवन के रूप में, दूसरा-विरोधी रूप धारण करने जाकर असफल निराशापूर्ण दुःख और पश्चत्तााप के रूप में अन्त पाता है। __रूप पर मुग्ध हुआ हृदय मांसल सौंदर्य और भरे हुए यौवन के भीतर कुछ और भी चाहता है-वह भीतरी सौंदर्य के उपभोग की कामना, जहाँ पूर्ण हुई, प्रेम और भी दिव्य, अलौकिक, त्यागशील बलिदानमय और सघन बन जाता है । यह प्रेम अभ्यंतर के सौंदर्य की शीतल मधु छाया में, परिस्थितियों के निर्देश-प्रकाश के पद-चिह्नों पर आगे बढ़ता जाता है और पूर्ण सौंदर्यमय स्वरूप धारण करके आदर्श के शिखर पर प्रारूद होता है। वीरता, निर्भयता, देश-भक्ति, दया, करुणा, परदुःख-कातरता आदि सभी उच्च मानवी गुणों से युक्त प्रेम ही बढ़कर दाम्पत्य रूप में सफल होता है। स्पष्ट लगता है कि लेखक सब गुणों से युक्त रूप-यौवन से उत्पन्न प्रेम को ही वास्तविक प्रेम समझता है । केवल बाहरी सौंदर्य और रूप-यौवन के प्रलोभन में वासना-जन्य प्रेम को असफल प्रेम मानता है। पहले प्रकार का प्रेम अलका-सिंहरण, चन्द्रगुप्त-कार्नेलिया, ध्र वस्वामिनी-चन्द्रगुप्त, मणिमालाजनमेजय, बाजिरा-अजात शत्र आदि में विकसित होकर सफल हुा । दुसरे प्रकार का प्रेम, जो कि वासनाजन्य है, केवल बाह्य रूप-सौंदर्य के उपभोग की लालसा से ही उत्पन्न हुआ है, विजया का स्वन्दगुप्त से, और विरुद्धक का मल्लिका से है। स्वच्छ और निर्मल प्रकार का भी एक अन्य प्रेम प्रसाद के नाटकों में रस-स्रोत बनकर कथावस्तु की वन-भूमि को सींच रहा है-अनेक पान-पादप उस दिव्य प्रेम की वेदनाभरी गुदगुदी में सिहर-सिहर उठ रहे हैं। वह बचपन का प्रेम जो बढ़कर उद्दाम वेग धारण करता है और अतृप्ति के झुलसते शिला-खण्डों से सिर पटक-पटक रह जाता है। बचपन की स्वच्छ गंगाजल-सी क्रीड़ाए, जब यौवन की व्याकुल स्मृतियाँ बनती हैं, तो हृदय छटपटा उठता है-यह निराश प्रेम सबसे अधिक करुण और बेचैन कर देने वाला है। जिस प्रेम का बिरवा शैशव से उगते-उगते जवानी तक आते-पाते फूलों से लद गया है, वह अतृप्ति की आग में झुलस जाय, तो जीवन में एक गहरा अंधेरा न छा जायगा।
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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