SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयशंकर 'प्रसाद' गया है जहाँ भी अवसर मिला है, न भी मिला तो खोज लिया गया, वहीं प्रसादजी के कवि ने मधु उड़ेल दिया है-उनकी भावुकता से भरी स्वर-लहरी चहक उठी है। 'नाटक काव्य है, उसका रचयिता कवि-तब कवि की झाँकी हर-एक नाटक में स्पष्ट होगी ही'—इस रूप में ही केवल प्रसादजी नहीं प्रकट हुए, बल्कि नाटक में अवसर और स्थान निकालकर उन्होंने अपने कवि को उपस्थित किया। प्रसादजी का कविता-प्रेम उनके नाटकों में दो रूप में प्रकट हुआ है। एक तो जहाँ-तहाँ नाटकीय अनुरोध और आवश्यकता के बिना ही भावोच्छवास की वष्टि और दूसरे गीतों की अरुचिकर प्रवृत्ति के रूप में । कथानक से अलग स्थिति की माँग के बिना और नाटकीय अनुरोध के विरुद्ध पात्रों के श्रोठों से गद्यकाव्य की रस-धाराएं जहाँ-तहाँ फिसलती दीखती हैं। ___ "अमृत के सरोवर में स्वर्ण-कमल खिल रहा था, भ्रमर वंशी बजा रहा था, पराग की चहल-पहल थी। सबेरे सूर्य की किरणें उसे चूमने को लौटती थीं सन्ध्या में शीतल चाँदनी उसे अपनी चादर से ढक देती थी।" "उस हिमालय के ऊपर 'प्रभात-सूर्य की सुनहली प्रभा से पालोकित प्रभा का पोले पोखराज-का-सा एक महल था, उसी से नवनीत की पुतली झाँककर विश्व को देखती थी। वह हिम की शीतलता से सुसंगठित थी। सुनहली किरणों को जलन हुई। तप्त होकर महल को गला दिया। पुतली ! उसका मंगल हो, हमारे अश्रु की शीतलता उसे सुरक्षित रखे । कल्पना की भाषा के पंख गिर जाते है-मौन नीड़ में निवास करने दो।" ____ऊपर दिये गए दोनों संवाद मातृगुप्त के काव्यमय प्रलाप-मात्र हैं। केवल काव्य-प्रवृत्ति को ये भले ही सन्तुष्ट करें, नाटक में इनका कुछ भी महत्त्व नहीं। नाटक के संवाद अस्पष्ट रहस्यवादी गद्य-काव्य के टुकड़े नहीं होते। इसी प्रकार देवसेना का कथन भी "वह अकेले अपने सौरभ की तान से दक्षिण पवन में कम्प उत्पन्न करता है, कलियों को चटकाकर, ताली बजाकर, झूम-झूमकर नाचता है। अपना नृत्य, अपना संगीत, वह स्वयं देखता है, सुनता है।" ___ 'चन्द्रगुप्त' में भी अनेक स्थलों पर इसी प्रकार के काव्योच्छ्वास बिखरे पड़े हैं। सुवासिनी, मालविका, कल्याणी श्रादि की वाणी से अनेक स्थलों
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy