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________________ हिन्दी के नाटककार पर रस-वर्षा हो रही है । सुवासिनी कार्नेलिया से कहती है - "अकस्मात् जीवन-कानन में एक राका रजनी की छाया में छिपकर मधुर वसन्त घुस आता है। शरीर की सब क्यारियां हरी-भरी हो जाती हैं। सौंदर्य का कोकिल 'कौन ?' कहकर सबको रोकने-टोकने लगता है. पुकारने लगता है । राजकुमारी, फिर उसी में प्रेम का मुकुल लग जाता है। आंसू-भरी स्मृतियाँ मकरंद-सी उसमें छिपी रहती हैं।" लेखक की यह मधु-सिंचन-प्रवृत्ति ही है, इसमें नाटक का अनुरोध कम है। माना जा सकता है कि कार्ने लिया के हृदय में चन्द्रगुप्त के प्रति प्रेम को जगाने के लिए ही यह कहलाया गया है। पर इस नाटकीय स्थिति को खोज लाने में भी लेखक को उसके कवि ने ही प्रेरित किया है। कवि का दूसरा रूप गीतों की बहुलता लेकर पाया है। प्रसाद जी की यह प्रवृत्ति कई नाटकों में तो बहुत बोझल हो गई है । लगता है, जैसे फिल्मों में ८-१० गीत रखने आवश्यक समझे जाते हैं या समय-कुसमय गाने का रोग पात्रों में पाया जाता है, यही गाने की बहुलता की प्रवृत्ति प्रसाद जी में है । 'अजातशत्र' में तो यह प्रवृत्ति बहुत ही अस्वाभाविक रूप में आई है। वासवी, गौतम, उदयन, पद्मावती, श्यामा, जीवक, विरुद्धक-सभी पगों तक में बोलते हैं। संस्कृत और पारसी स्टेज के नाटकों में यह रोग बहुत था। कभीकभी क्या, अधिकतर, जो बात गद्य में एक पात्र कहता था, वही पण में भी दोहराता। 'अजातशत्र' में २१, 'जनमेजय का नागयज्ञ' में हैं, 'स्कन्दगुप्त' में १६, 'चन्द्रगुप्त' में ११, 'कामना' में ७, 'राज्य-श्री' में ७ गाने दिये गए हैं। नाटकीय मर्यादा के अनुसार गानों की इतनी भरमार बड़ी बोमल है। इनसे कथावस्तु में भी बाधा पड़ती है, कार्य-ज्यापार भी शिथिल होता है। अधिक गीतों से नाटकीय अभिनय में दोष ही उत्पन्न होता है। 'स्कन्द गप्त' 'चन्द्रगुप्त' 'अजातशत्र' में जिसे भी देखो, गाने लगता है। 'स्कन्द. गुप्त' की देवसेना को तो जैसे रोग हो गाने का। सम्भवत: पाठक या दर्शक की मनोवत्ति को पहचानकर ही बन्धुवर्मा उससे कहता है, 'देव सेना तुझे भी गाने का विचित्र रोग है।' । गाने की इस प्रवत्ति को देखकर ऐसा लगता है कि एक पात्र को गाते देखकर प्रत्येक पात्र प्रसादजी से रूठते हुए कह रहा हो-"हम से भी गव इये न, कोई हम क्या गा नहीं सकते ! वाह, उसे तीन गाने, और मुझे एक भी
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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