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________________ उदयशंकर भट्ट १६३ कम है। इसके अतिरिक्त किसी पात्र के प्रवेश से पहले काफी समय व्यर्थ की बातों में नष्ट करके पात्र आता है या आपसी इधर-उधर की बात-चीत के बाद पात्र आवश्यक बात पर आते हैं, यह भी नाटकीय दोष हैं । 'दाहर' 'विक्रमादित्य' आदि में यह बहुत 1 टेकनीक की दृष्टि से भट्टजी के नाटकों का धीरे-धीरे विकास होता गया है । डॉ० नगेन्द्र के शब्दों से कि 'टैकनीक की दृष्टि से भट्टजी के सभी नाटक प्रस फल हैं । हम सहमत नहीं । नाटकीय कला के विकास की दृष्टि से देखें तो 'कमला' और 'शक - विजय' भट्टजी के श्रेष्ठ नाटक हैं और 'विक्रमादित्य' तथा 'दाहर' नीचे दर्जे के । 'कमला' ने ही कला के अभ्यास और विकास के बीच लकीर खींची है । 'कमला' और 'शक-विजय' में उन्होंने पर्याप्त सफलता पाई है । 1 अभिनेता नाटक जन-सम्पर्क स्थापित करने का सबसे सफल और सरल साधन है । साहित्य के अन्य किसी साधन से जनता के सम्पर्क में थाना और उस सम्पर्क को स्थायी सम्बन्ध बनाना इतना सरल नहीं, जितना नाटक के द्वारा । पर नाटक में जिसके द्वारा वह अपनी जन-सम्पर्क- सफलता की घोषणा करता है, वह है श्रभिनेयता । श्रभिनेय तत्व नाटक के जीवन को बहुत बढ़ा देता है । यदि नाटक में केवल पाठ्य-गुण ही होगा, तो जीवन और जनप्रियता की दौड़ में वह उपन्यास और कहानी से बहुत पीछे रहेगा । श्रभिनय गुण ही तो उसे उपन्यास या कहानी से श्रेष्ठ बनाता है । इस प्रमाण से तो स्पष्ट है— उपन्यास और कहानियाँ जितनी बिकती हैं, नाटक नहीं बिकते । नाटक में जो कुछ लेखक नहीं कहता, वह अभिनय के द्वारा दिखाया जा सकता है । भट्टी के नाटकों में जहाँ टैकनीक के अन्य उभरते दोष हैं; वहाँ अभिकी दृष्टि से भी वे सर्वथा असफल हैं । दृश्य-विधान की दृष्टि से 'विक्रमादित्य' के पहले दो अङ्क विशेष कठिन नहीं, पर तीसरे अङ्क का दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवाँ दृश्य निर्मित किये जाने सम्भव हैं। पूरे का पूरा श्रंक बनाना रचनातीत है । काँची के राजा का मंत्रणागार, काली का मंदिर, काली मंदिर के सामने एक गहर पर्वत शिखर की सेना से घिरा है - विक्रमादित्य द्वारा सेना का है समय, स्थान और सुविधा इन सभी की रचना से इंकार करते हैं । यह हाल पाँच अंक का है । उसमें भी लगातार प्रासादों और उद्यानों के दृश्य हैं और भीड़-भाड़ भी काफी है । शिला और करहार शत्रुनिरीक्षण - यह क्रम ।
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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