SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ हिन्दी के नाटककार की दृष्टि से भी 'कमला' सर्वश्रेष्ठ ठहरता है। नाटकीय तत्वों में चरित्र-चित्रण में भट्ट जी सफल हुए हैं। विक्रमादित्य' में विक्रमादित्य, सोमेश्वर, 'दाहर' में परमाज और सूरज, 'सगर-विजय' में बर्हि और विशालाक्षी, 'कमला' में देवनारायण, 'मुक्ति-पथ' में सिद्धार्थ, शुद्धोदन, 'शक-विजय' में कालकाचार्य प्रादि के चरित्रों में चरित्र-चित्रण के कौशल का काफी पता चलता है। चरित्र-चित्रण के लिए भट्ट जी ने स्वगत का सहारा तो लिया ही है, अन्य सभी संभव साधन अपनाये हैं। एक के द्वारा अन्य पात्र का चरित्र प्रकाशित करने का ढंग भी अपनाया है। कमला जैसे प्रतिमा के विषय में कहती है। कार्य-कलापों से भी चरित्र का प्रकाशन किया गया है। कालकाचार्य, विक्रमादित्य, परमाल, सूरज, बर्हि श्रादि का चरित्र उनके कार्य-कलापों से ही प्रकाशित किया गया है। आपसी वार्तालाप से भी कभी-कभी चारित्रिक गुणों का प्रकाशन किया जाता है, यह भी प्रकार सोमेश्वर, चन्द्र केतु, परमाल के चरित्रोद्घाटन मे अपनाया गया है। परिस्थितियों के अनुसार भी चरित्रों में विकास और ह्रास दिखाया गया है। ___ भह जी के नाटकों का प्रारम्भ अधिकतर साधारण दृश्यों से होता है। 'विक्रमादित्य' का प्रारम्भ एक राज-पथ से होता है और 'शक-विजय' का भी प्रारम्भ राज-मार्ग से । पहले दृश्य में लेखक नाटक को प्रस्तावना रख देता है। प्रारम्भ अधिक प्रभावशाली नहीं होता। अन्त दुःख और सुख दोनों में होता है । 'शक-विजय', 'सगर-विजय' 'विक्रमादित्य' का अन्त विजय में होता है और 'दाहर' का प्रतिशोध में। प्रारम्भिक नाटकों में भट्ट जी की कला लड़खड़ाती-सी लगती है-कलम में आत्म-विश्वास की कमी छलकती है। 'दाहर' का पाँचवाँ अंक भरती-सी मालूम होता है और है भी कितना छोटा। 'शक विजय' तक में अङ्क का विभाजन लम्बाई के हिसाब से ठीक नहीं जंचता। पहला अङ्क बीस; दूसरा अठारह, तीसरा छियालीस और चौथा बाईस पृष्ठों का है। 'कमला' में पहले और तीसरे अङ्क में केवल एक-एक दृश्य है और दूसारे अङ्कमें तीन सीन'। भट्टजी के नाटकों में एक दो बातें और भी बहुत खटकने वाली हैं। श्राकस्मिकता का अभाव इनमें बहुत है । 'प्रसाद' और 'प्रेमी' के नाटकों में यह पर्याप्त मात्रा में मिलेगी। सहसा कोई पात्र किसी पात्र के संवाद का छोर पकड़कर प्रवेश करता है और व्यंग्यात्मक ढंग से उसे दोहराता है-इससे नाटक में प्राकस्मिकता पाती है। या अचानक कोई अभिलषित घटना आशंका के विरुद्ध होना भी नाटक में जान डाल देता है, यह भी इनके नाटकों में
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy