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________________ ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग सुखकी खोज करती है वह अनित्य होने पर भी अतिनिकट और सहजभोग्य है। उधर निवृत्तिमार्गमुखी इच्छा जिस सुखको खोजती है, वह नित्य होने पर भी बहुदूरवर्ती है, और संयतचित्त हुए बिना कोई उसे भोगनेका अधिकारी नहीं होता। किन्तु यह होने पर भी, निवृत्तिमागर्मुखी इच्छा यद्यपि हमें धीरेधीरे कर्ममें लगाती है, तथापि एकबार वैसी इच्छासे प्रेरित कर्म आरंभ होने पर वह अविरत चलता रहता है। कारण वह इच्छा जिस सुखको खोजती है वह नित्य है, और उस सुखको भोगनेकी शक्ति कभी नहीं घटती। कठोपनिषदमें, यम-नचिकेता उपाख्यानमें, नचिकेताने जब विषयसुखको उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा, तब यह कहा कि इस सुखके सामान अस्थायी हैं, और यह सुख भोगते भोगते इन्द्रियाँ तेजोहीन हो जाती हैं और हमारी भोगशक्ति घटती है। प्रवृत्तिमार्गके सुखमें यह प्रधान बाधा है कि वह सुख पानेके लिए जिन सब भोग्य वस्तुओंकी आवश्यकता है वे अस्थायी हैं और वह सुख भोग नेके लिए हममें जो शक्ति है वह भी क्षय होनेवाली है। परन्तु प्रवृत्तिमार्गमुखी इच्छाके द्वारा प्रेरित होकर कोई कार्य किया जाय तो उसके निबहनेके बारेमें बहुत कुछ शंका रहती है। कारण, कर्ता स्वयं सुखलाभके लिए ही उसमें प्रवृत्त होता है। किन्तु निवृत्तिमार्गमुखी इच्छाके द्वारा अगर कोई उसी कार्यमें नियुक्त हो, तो उसके संबंधमें वह आशंका नहीं रहती। वह अपने सुख पर दृष्टि न रखकर इसीकी चेष्टा करता रहता ह कि वह कार्य यथोचितरूपसे संपन्न हो । एक साधारण दृष्टान्तके द्वारा यह बात बिल्कुल स्पष्ट प्रतीत हो जा यगी रोगीकी सेवा करना अत्यन्त सत्कर्म है। प्रवृत्तिमार्गगामी कोई व्यक्ति यदि वह सत्कर्म करेगा तो उसके हृदयमें पराये हितकी कामना अवश्य ही रहेगी, किन्तु साथ ही साथ अपने हितकी कामना-अर्थात् यश और सम्मान पानेकी कामना भी भीतर ही भीतर रहेगी, और उसका फल कभी कभी ऐसा ही हो सकता है कि जिसे कोई देखने सुननेवाला नहीं है, और जिसकी सेवा करनेसे उसे कोई देखेगा नहीं, वह योंही पड़ा रहेगा, और जिसकी सेवा करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं है, किन्तु उसकी सेवा की जाय तो उसे दस आदमी देखेंगे-उसकी पहले सेवा और दखरेख की जायगी। और, अगर निवृत्तिमार्गगामी कोई ऐसे कामका व्रत लेगा तो वह केवल पराये हितकी कामनासे प्रेरित होकर काम करेगा। वह कर्तव्यपालन करनेसे उत्पन्न होने
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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