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________________ तीसरा अध्याय ] अन्तर्जगत् । ५७ वाले सुखके सिवा और किसी लाभकी आकांक्षा नहीं करेगा, इसीकारण वही विधिपूर्वक यथोचित काम करनेमें समर्थ होगा । अगर कोई कहे कि प्रवृत्तिमार्गगामी लोगोंनेही कर्मक्षेत्र में आग्रह और उद्यमके साथ काम करके नानाविध विषय - सुखके उपायोंका आविष्कार करनेके द्वारा अच्छी तरह मनुष्यजातिका हितसाधन किया है, निवृत्तिमार्गगामियोंने वैसा कुछ नहीं किया, तो उसे स्मरण रखना चाहिए कि उन सब सुखोंके उपाय रहने पर भी जब कोई आदमी असाध्य रोगसे कातर, दुःसह शोकसे आकुल, या दुस्तर निराशा के सागर में निमग्न होता है, तब निवृत्तिमार्गगामियोंके ही अति उज्ज्वल जीवनके दृष्टान्त उसके घने अन्धकारसे ढके हुए चित्तको कुछ प्रकाशित कर सकते हैं, और केवल उन्हीं की गहरी विचारशक्तिसे उत्पन्न शास्त्रोपदेश उसके लिए शान्तिलाभका उपाय होते हैं । हमारी इच्छा जिसमें बिल्कुल ही प्रवृत्तिमार्गमुखी न होकर कुछ कुछ निवृत्तिमार्गमुखी भी हो, ऐसा यत्न सभीको करना चाहिए। यह आशंका करका कोई कारण नहीं है कि उससे मनुष्य निष्कर्मा हो जा सकता है। हमारी सब स्वार्थपर प्रवृत्तियाँ इतनी प्रबल हैं कि निवृत्तिके अभ्याससे उनकी जड़ उखड़ने की कोई संभावना नहीं है । बड़ा यत्न करनेसे वह केवल कुछ कुछ शान्त भर हो सकती है, और ऐसा हीनेसे जगत्‌का उपकार ही होगा, अपकार नहीं । अनेक लोग कहते हैं कि उच्च और नीच, परार्थपर और स्वार्थपर, निवृत्तिमागमुखी और प्रवृत्तिमार्गमुखी, सब प्रकारके भाव और सभी प्रकारकी इच्छाएँ मनुष्यके प्रयोजनकी चीज हैं, और उन सभीके यथायोग्य विकास और सामञ्जस्यके साथ काम करना मनुष्यके पूर्णता प्राप्त करनेका लक्षण है ( 9 ) । संसार में समय समय पर ऐसा होता है कि स्वार्थपर भाव और नीच इच्छासे प्रेरित कार्य आत्मरक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक हो पड़ते हैं । जैसे, जब एक आदमी दूसरेको अकारण मार डालने आ रहा है, उस समय उस आततायीको चोट पहुँचा कर या उसकी हत्या करके आत्मरक्षा करनी होती (१) स्व ० बंकिमचन्द्र चटर्जी के 'कृष्णचरित्र' का दूसरा संस्करण, ४ पृष्ठ, देखो ।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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