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________________ तीसरा अध्याय ] अन्तर्जगत् । किन्तु वह अन्तर्जगत्की क्रिया है, इसलिए उसका यहाँ पर उल्लेख कर दिया । गया, और कुछ आलोचना भी की जायगी। 7 इच्छा सब कौंको प्रवृत्त करती है। वह सत्, असत् और अनेक प्रकारंकी है। इच्छा नानाप्रकारकी होनेपर भी दो भागोंमें उसका विभाग किया जा सकता है-प्रवृत्ति-मुखी और निवृत्ति-मुखी, अथवा प्रेयोमार्गमुखी और श्रेयोमार्गमुखी ( १)। • इस लोकमें वैषयिक सुखके उपयोगी पदार्थों को पानेकी इच्छा, और जो लोग परलोक या जन्मान्तर मानते हैं, उनके पक्षमें परलोकमें या परजन्ममें जिससे सुखभोग हो सके उसके उपयोगी कर्म करनकी इच्छा, प्रथमोक्त श्रे• णीकी इच्छा है। और इस लोकमें जिससे सच्चा सुख अर्थात् शान्ति मिले, और परलोक या परिणाममें जिससे मुक्ति प्राप्त हो, वैसा कार्य करनेकी इच्छा दूसरी श्रेणीके अन्तर्गत् है । संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि भोगकी वासना प्रवृत्ति या प्रेयोमार्गमुखी इच्छा है, और भोगोंको अनित्य जानकर मुक्तिलाभकी वासना निवृत्ति या श्रेयोमार्गमुखी है। कोई पाठक ऐसा न समझ बैठे कि प्रवृत्ति या प्रेयोमार्गमुखी इच्छा ही यथार्थमें इच्छा है, और निवृत्ति या श्रेयोमार्गमुखी इच्छा इच्छा ही नहीं है, वह इच्छाका अभाव है। इस प्रकार संदेह करनेका कोई कारण नहीं है। क्या मुमुक्षु और क्या भोगकी अभिलाषा रखनेवाले, सभी इच्छाके वश हैं। कोई स्थिर नहीं है, कोई निश्चेष्ट नहीं है, सभी इच्छाकी प्रेरणा पाकर अपने अपने कर्ममें लगे हुए हैं। किन्तु वह इच्छा और उसकी प्रेरणासे होनेवाले कर्म जुदे जुदे लोगोंके जुदी जुदी तरहके हैं। अनेक लोग सोच सकते हैं कि प्रवृत्ति या प्रेयोमार्गमुखी इच्छा ही मनुष्यको यथार्थ कर्मी बनाकर जगत्का हित करने में लगाती है, और निवृत्ति या श्रेयोमार्गमुखी इच्छा मनुष्यको निष्कर्मा बनाकर जगत्का हित करनेसे निवृत्त करती है। किन्तु यह बात ठीक नहीं है। सच है कि प्रवृत्तिमार्गमुखी इच्छा निवृत्तिमार्गमुखी इच्छाकी अपेक्षा अधिक प्रबल है और अधिक वेगके साथ हमें कर्ममें नियुक्त करती है। पर उसका कारण यह है कि वह इच्छा जिस (१) कठोपनिषद्, १, २, १-२ देखो।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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