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________________ ૨૬૮ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग जाय, तबतक उसका पालन करना चाहिए, और उसे न मानना अकर्तव्य है। __राजाके या किसी राजकर्मचारीके कामकी समालोचना करनी हो तो यथोचित संमानके साथ करनी चाहिए । राजाके या राजकर्मचारीके काममें दोष देख पड़े, तो उसे दिखा देनसे राजा और प्रजा दोनोंहीका उपकार होता है। किन्तु वह दोष सरल और विनीत भावसे संमानके साथ दिखाना उचित है। ऐसा न करनेसे उसके द्वारा कोई सुफल न होकर कुफल होनेही की अधिक संभावना रहती है। कारण, असंमानके साथ उद्धत भावसे किसीका भी दोष दिखानेमें उसका चिढ़ जाना स्वाभाविक है, और अगर दोष होगा भी तो वह स्थिरभावसे ध्यान देकर उसे देखना नहीं चाहेगा। इस प्रकार उस दोषका संशोधन तो होगा ही नहीं, बल्कि उस चिड़ जानेके कारण उस व्यक्तिके द्वारा अन्य अनेक दोष भी हो जायेंगे। असंमानके साथ राजा या राजकर्मचारीके दोष दिखानेसे उसके प्रति अन्य प्रजाकी श्रद्धा भी घट सकती है, उसके फलसे राजा-प्रजामें परस्पर असद्भाव पैदा हो सकता है, और वह राजा प्रजा दोनोंहीके लिए अशुभकर है। ५ एक जातिका या राज्यका अन्य जातिके या राज्यके प्रति कर्तव्य । सब सभ्यजातियोंको और सभ्य राज्योंको परस्पर सद्भावके साथ रहना चाहिए। सभ्य मनुष्योंका परस्पर व्यवहार जैसा न्याय-संगत होना उचित है, सभ्य जातियोंका परस्पर व्यवहार उसकी अपेक्षा अधिकतर न्याय संगत होनकी आशा की जाती है। कारण, एक मनुष्यके सभ्य बुद्धिमान् और न्याय-परायण होने पर भी उनके भ्रममें पड़ जानेकी संभावना रहती है, किन्तु एक समग्र सभ्य जातिके, जिसके भीतर अनेक बुद्धिमान् और न्याय-परायण व्यक्ति होंगे, सभीके भ्रम में पड़ जाने की संभावना बहुत कम है । दुःखका विषय यह है कि इस तरहकी सभ्य जातियोंमें भी कभी कभी युद्ध ठन जाता है । जान पड़ता है, इसका कारण असंयत वैषयिक उन्नतिकी आकांक्षा ही है । वैषयिक उन्नति वांछनीय अवश्य है, किन्तु वही मनुष्य जीवनका या जातीय जीवनका एकमात्र या श्रेष्ठ उद्देश्य नहीं है, आध्यात्मिक उन्नति ही मनुष्यका चरम लक्ष्य है।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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