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________________ पहला अध्याय ] कर्ताकी स्वतंत्रता। १८३ अथवा दो बतलाया है । अद्वैतवादीके मतमें वह आदि कारण एक है, और वह ब्रह्म अथवा जड़ है। और द्वैतवादीके मतमें आदि कारण एक नहीं दो है; उन्हें प्रकृति और पुरुष अथवा जड़ और चैतन्य कहते हैं। चैतन्य और जड़में मौजूद वर्तमान अलगाव देख कर द्वैतवादी लोग कहते हैं-चैतन्य और जड़ दोनों ही अनादि हैं, और ये ही दोनों जगत्का आदिकारण हैं। जड़वादी लोग कहते हैं-जड़से ही चैतन्यकी उत्पत्ति है। ये लोग भी एक प्रकारके अद्वैतवादी हैं । वेदान्ती अद्वैतवादी कहते हैं-जगत्का आदिकारण एक ब्रह्म है। जड़से चैतन्यकी उत्पत्ति युक्तिविरुद्ध है और चैतन्यसे जड़की सृष्टि युक्तिसिद्ध है, यह बात सिद्ध करनेकी चेष्टा इस पुस्तकके प्रथम भागके चौथे अध्यायमें की जा चुकी है। यहाँ पर फिर उन सब बातोंके कहनेका प्रयोजन नहीं है। उस सम्बन्धमें केवल एक बात यहाँ पर कही जायगी। मायावादीके __ "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।" अर्थात् , ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव ब्रह्मके सिवा और कुछ नहीं है। यह कहनेका कारण शायद यह है कि जगत्का आदिकारण ब्रह्म निरा. कार निर्विकार है, किन्तु जगत् साकार और सविकार है, अतएव जगत् सत्य नहीं हो सकता, हमारे भ्रमके कारण वह सत्य सा प्रतीत होता है; क्यों कि निराकार निर्विकारसे साकार सविकार नहीं निकल सकता। इस कथनके मूलमें यह बात मौजूद है कि जैसा कारण होता है उसका कार्य भी वैसा ही होता है। किन्तु यह पिछली बात कुछ दूर तक सत्य है, संपूर्ण सत्य नहीं है । पहले तो, कारणके साथ कार्यका कुछ साम्य रह सकता है, किन्तु कार्य जब कारणका रूपा. न्तर या भावान्तर है, तब वह साम्य संपूर्ण साम्य हो नहीं सकता-उसके साथ अवश्य ही कुछ वैषम्य भी रहेगा। दूसरे, यह बात कहनेसे जगत्का जो कारण है उसकी असीमशक्तिके ऊपर सीमाका आरोप होता है । सच है कि यह अनुमान नहीं किया जाता कि ज्ञानके कई एक नियमों (जैसे एक ही समयमें एक ही जगहमें एक ही वस्तुका होना और न होना, दोनों बातें नहीं हो सकतीं) का अतिक्रमण अनन्त शक्ति भी कर सकती है। किन्तु वर्तमान स्थलमें उस तरहके किसी नियमका उलंघन नहीं होता। अगर कोई कहे कि निराकार और साकार, या निर्विकार और सविकार भाव ऐसे विरुद्ध गुण हैं कि
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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