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________________ ज्ञान और कर्म । [द्वितीय भाग पहले इसीकी कुछ आलोचना की जायगी कि इस साधारण प्रश्नका ठीक उत्तर क्या है। कार्यकारणसम्बन्ध । कार्य-कारण-सम्बन्ध किस तरहका है, इस बारेमें बहुत मतभेद है। न्यायदर्शनके रचनेवाले गौतम और वैशेषिक दर्शनके प्रणेता कणाद, इन दोनोंके मतमें कार्य और कारण परस्पर भिन्न हैं। सुतरां इस मतके अनुसार कारण पहलेहीसे है, कार्य पहले नहीं था, अर्थात् कार्य असत् है। सांख्य-दर्शनके मतमें कार्य जो है वह कारणका रूपान्तर मात्र है। अतएव इस मतमें कार्य पहलेहीसे अव्यक्त भावसे कारणमें था, अर्थात् कार्य सत् है। इन सब मतोंकी आलोचना करनेका यहाँ कुछ प्रयोजन नहीं है * । यहाँ पर इतना ही कह देना यथेष्ट होगा कि जब किसी कार्यके सब कारणोंका मिलन होने पर वह कार्य अवश्य ही होगा, तो कार्य अपने कारणसमूहका रूपान्तर या भावान्तर मात्र है, और वह उस कारणसमूहमें अव्यक्त भावसे मौजूद था, नहीं तो वह कहाँसे आया ? कोई कार्य आपहीसे हुआ, कोई वस्तु आपहीसे आई, यह हम मुँहसे अवश्य कह सकते हैं; किन्तु वह वृथा शब्दप्रयोग मात्र है। वैसा किस तरह होगा, इसका मनमें अनुमान या कल्पना हम नहीं कर सकते । आत्मासे पूछनेसे ही इस बातका प्रमाण पाया जाता है। हरएक कार्यका कारण है। वह कारण भी अपने पूर्ववर्ती किसी कारणका कार्य है। अतएव उस कारणका भी कारण है। फिर उसका भी कुछ कारण है । इस तरह परम्पराक्रमसे कारणश्रेणी अनन्त हो जाती है। यह तो हुई एक कार्यकी बात । किन्तु जगत्में हरघडी असंख्य कार्य होते रहते हैं । अतएव इस तरहकी कारणश्रेणीकी संख्या भी असीम हो जायगी। किन्तु यह बात तब होगी, जब ये सब भिन्न भिन्न कारणोंकी श्रेणियाँ मिलित होकर अपने आदिमें एक या एकसे अधिक किन्तु अल्पसंख्यक मूल कारणमें समाप्त न हो जायँ । साधारण लोगोंकी सामान्य युक्ति और प्रायः सभी देशोंके विद्वानों बुद्धिमानोंके सोच समझ कर कहे गये वचनोंने इस कारण-बहुलताका परिहार करते हुए जगत्के आदि मूल कारणको केवल एक _* इस सम्बन्धमें श्रीयुक्त प्रमथनाथ तर्कभूषण प्रणीत 'मायावाद' पुस्तक देखनी चाहिए।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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