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________________ १८४ ज्ञान और कर्म । [द्वितीय भाग वे एक साथ एक ही आधारमें ( अथवा उसके तुल्यक्षेत्रमें, अर्थात् एक गुण कारणमें और दूसरा गुण उसके कार्यमें) नहीं रह सकते, तो उसका उत्तर यह है कि यद्यपि एक ही वस्तु एक कालमें निराकार और साकार, अथवा निर्विकार और सविकार नहीं हो सकती, किन्तु ब्रह्म और जगत् उस तरह वैसी ही एक वस्तु नहीं हैं। ब्रह्म अनन्त है, जगत् ( अर्थात् जगत्का जितना अंश हमारे निकट प्रतीयमान है) अन्तयुक्त है । ब्रह्म अखण्ड है, प्रतीयमान जगत् खण्डमात्र है । अतएव आदिकारण ब्रह्म निराकार और निर्विकार होनेपर भी, उसका आंशिक कार्यका अर्थात् प्रतीयमान जगत्का साकार और सविकार हो सकना इतना युक्ति-विरुद्ध नहीं है कि जगत्को एकदम मिथ्या और जगत्-विषयक ज्ञानको एकदम भ्रम कहा जाय । हम अपने अपूर्ण ज्ञानमें जगत्को जैसा देखते हैं, वह जगत्का ठीक स्वरूप भले ही नहीं हो सकता, और हमारा जगत्-विषयक ज्ञान भी पूर्णज्ञान नहीं है, किन्तु केवल इसीलिए यह बात नहीं कही जा सकती कि जगत् एकदम मिथ्या है और हमारा उसके विषयका ज्ञान एकदम भ्रम है । दृश्यमान जगत् परिवर्तनशील है, और उस जगत्का सुख-दुःख अस्थायी है, और इस बातको भूलकर जगत्की वस्तु और उससे उत्पन्न सुख-दुःखको स्थायी समझना भ्रान्ति है, इस अर्थमें जगत्को मिथ्या और हमारे तद्विषयक ज्ञानको भ्रम कहा जा सकता है। किन्तु वह बात एक प्रकारसे अलङ्कारकी उत्प्रेक्षामात्र है। संक्षेपमें कहा जाय तो कार्य-कारण-सम्बन्धका मूलतत्त्व यह है(१) कोई भी कार्य विना कारणके हो नहीं सकता। (२) कार्य मात्र ही अपने कारण अर्थात् कारण-समूहके मिलनका फल हैं, और उन सब कारणोंका रूपान्तर या भावान्तर हैं। और उस मिलनके पहले वे कार्य अपने कारणसमूहमें अव्यक्त भावसे निहित रहते हैं। (३) सभी कारणोंका आदि कारण एक अनादि अनन्त ब्रह्म है। ब्रह्म खुद अपनी सत्ताका कारण है, और सभी कार्य मूलमें उसी ब्रह्मकी शक्ति या इच्छासे प्रेरित हैं। इस बातके ऊपर एक कठिन प्रश्न उठ सकता है। सभी कार्योंका आदि कारण अगर एक अनादिकारण है, और कार्य अगर कारणसमष्टिके मिलनेका फल और उसका रूपान्तर या भावान्तरमात्र है, तो फिर वह मिलन नित्य
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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