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________________ पहला अध्याय। कर्त्ताकी स्वतंत्रता। कर्मकी आलोचनामें सबके आगे कताका ही जिक्र आता है। कारण, कांके बिना कर्म नहीं होता। कर्ताके बारेमें आलोचना करनेसे यह प्रश्न पहले ही उठता है कि कर्ताकी स्वतन्त्रता है कि नहीं ? यह प्रश्न अनावश्यक नहीं है, क्योंकि कर्ताके और उसके कर्मके दोष-गुणका निरूपण, और कर्ताकी सत्कर्म-शिक्षा और भावी उन्नतिके उपाय ठीक करना, इस प्रश्नके उत्तरके ऊपर निर्भर है। यदि कर्ता स्वतन्त्र है, तो अपने कर्मके लिए वह संपूर्णरूपसे जिम्मेदार है, और उसके दोष-गुणोंका निरूपण उसके कर्मोंके दोष-गुणोंके द्वारा होगा। और, उसके सत्कर्म सीखने और भावी उन्नतिके लिए, जिसमें उसकी स्वतन्त्र इच्छा शुभकर हो, वही राह पकड़नी होगी । और अगर वह स्वतन्त्र नहीं है, वह अवस्थाहीके द्वारा पूर्णरूपसे संचलित होता है, तो उसके कर्मोंके लिए वह जिम्मेदार नहीं बनाया जा सकता, और उसके दोषगुणोंका निरूपण उसके कौके दोष-गुणोंके द्वारा नहीं होगा । तब उसकी सत्कर्म-शिक्षा तथा भावी उन्नतिके लिए, जिस अवस्थाके द्वारा वह संचलित होता है, उसीके ऐसे परिवर्तनकी चेष्टा करनी होगी, जिससे वह सुमार्गमें संचालित हो सके। कर्ता स्वतन्त्र है कि नहीं-यह प्रश्न कर्म और कर्ताका परस्पर कैसा सम्बन्ध है, इस प्रश्नके साथ मिला हुआ है। और, पिछला प्रश्न कार्यकारणसम्बन्ध किस तरहका है, इस साधारण प्रश्नका एक विशेष अंश है । अतएव
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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