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________________ सातवाँ अध्याय] ज्ञान-लाभका उद्देश्य । धन छीनना इस समय भी सर्वत्र अनुमोदिन है। युद्धो अजुना पक्ष अवश्य ही यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति व्यन्त्रिमें विवाद उपस्थित होने पर राजा या राजप्रतिनिधि उसका फैसला कर देते हैं, किन्तु जादि जाति विवाद उपस्थित होने पर कोई भी राजा उसका फैसला करनेवाला नहीं हो सकता । उसकी अंतिम मीमांसा युद्ध ही करता है । जो जानिदोहे परस्पन विवाद उपस्थित होने पर युद्धके सिवा और उपाय नहीं है । अत युद्ध भला हो या बुरा, समय समय पर वह अनिवार्य होता है। अन्य जाति और असभ्य जातिमें परस्पर विवाद होने पर, जान पड़ता है, इस बातको सत्य ही मानना पड़ेगा। तो भी उस अवसर पर अगर सभ्य जानि कुछ विवेचनासे काम ले, तो युद्धकी भयानकता बहुत कुछ कम हो सकता है । कारग, दनैमान सभ्य और असभ्य जातियोंकी अवस्थाको विवेचनापूर्वक देखने से समझ पड़ता है, सभ्य और असभ्यका युद्ध, सबल और दुर्बलका संग्राम, सबल और सभ्यके कुछ सदय-भाव धारण करने पर, शीघ्र ही समाप्त होना संभवपर है। किन्तु दो सभ्य जातियों में परस्पर विवाद होने पर उस जगह युद्धके सिवा और दूसरा उपाय नहीं है-यह बात स्वीकर करते चित्तको व्यथा होती है। कारण, यह बात स्वीकार करनेके साथ ही यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि जो लोग सभ्य और सुशिक्षित हैं वे भी अपने विवादकी जगह स्वार्थ या अभिमानके मोहमें अंधे होकर न्यायके मार्गको नहीं देख पाते। ऐसी जगह पर कमसे कम एक पक्ष मोहसे अंधा न हो, तो विना युद्धके झगड़ा मिटनेमें किसी वाधाका रहना संभव नहीं। दो सभ्य जातियोंके शीर्षस्थानीय पुरुषोंमें न्यायमार्ग निश्चित करनेके लायक विद्या, बुद्धि और सत्-विवेचनाका अभाव नहीं रह सकता। अतएव जो वे निःस्वार्थ भावसे झगड़ेका फैसला करनेके लिए यत्न करें और अपनी दुराकांक्षाको छोड़ दें, तो युद्धका प्रयोजन नहीं रह सकता। समय समय पर अवश्य ऐसा हो सकता है कि अत्यन्त सूक्ष्म भावसे देखने पर दोनों प्रतिद्वन्द्वियोंमेंसे किसका कथन कहाँतक न्यायसंगत है, यह ठीक करना कठिन होता है। किन्तु वैसे अवसरों पर युद्धसे होनेवाले भयानक अनिष्टको रोकनेके लिए दोनों पक्षोंका, कुछ हानि स्वीकार करते हुए जरा स्थूल सिद्धान्त मान लेना ही क्या बुद्धिमत्ताका काम नहीं है ? यह बात नहीं है कि युद्ध में अनास्था और युद्ध-निवारणके लिए व्यग्रता, केवल इस समय युद्धका अभ्यास न रखनेवाले कोमल-प्रकृति भारतीयोंका ही
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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