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________________ सातवाँ अध्याय ] ज्ञान-लाभका उद्देश्य । स्वदेशाजुराहीका श्रेष्ठ धर्म है। वे नहीं समझते कि पुराने के संस्कार और नयेकी सृष्टि में कितना बड़ा अन्तर है। नई भूमि में नई इमारत बनाना सहज है। पुरानी इमारतको तोड़कर गिराकर उस भूमिको साफ करके उसके ऊपर नई इमारतको खड़ा करना, कुछ अधिक श्रम और धनव्ययसे साध्य होने पर भी, कठिन नहीं है । लेकिन पुरानी इमारतको बिल्कुल न गिराकर केवल उसके टूटे और जीर्ण भागकी मरम्मत करना और उस समय उसी घरमें रहकर वह मरम्मत करना अत्यन्त कठिन कार्य है और यह काम करनेके लिए अत्यन्त सावधानीकी जरूरत है। पुराने समाज और प्रचलित राजतन्त्रका संस्कार भी वैसा ही कठिन कार्य है, और उसमें भी वैसी ही सावधानताकी जरूरत है। समाज और राजतकको अच्छा बनाने के लिए उसे बलप्रयोगके द्वारा अगर बिल्कुल गिरा देनेकी चेष्टा की जाती है तो उसका फल यह होता है कि जितने दिनतक नवीन समाज या नया राजतन्त्र संगटित नहीं होता, उतने दिनतक उस नवीन संगठनकी अनिश्चित आशामें स्वेच्छाचार और अराजकता आदि निश्चित अशुभ फल भोगने पड़ते हैं। यह और भी दुःखका विषय है कि इस श्रेणीके राजनीतिक संस्कार करनेवाले लोग अपने उद्देश्यको अच्छा बताकर उसे सिद्ध करनेके लिए बुरे उपायोंको भी काममें लाते नहीं हिचकते । सुना जाता है, अनेक सुशिक्षित लोग यूरोपमें गुप्त विल्पवकारियों ( Anarchists) के दलमें शामिल हैं, और वे बिना किसी संकोचके भयानक हत्या. काण्डोंमें प्रवृत्त होते हैं। और, व्यथित चित्तसे देखना पड़ता है कि धर्मभीरु और स्वभावहीसे करुण-हृदय भद्र हिन्दुओंकी सन्तानों में भी कोई कोई ऐसे अत्यन्त निन्दित नीच कार्य में लिप्त हो रहे हैं। वे कहते हैं, “ अमंगलको बिल्कुल त्याग कर देनेले मंगलकी आशा भी छोड़ देनी पड़ती है । अशुभसे शुभकी उत्पत्ति होना ही प्रकृत्तिका नियम है। जो प्रचण्ड आँधी बड़े-बड़े वास्तु-वृक्षोंको गिरा देती है, उसीसे वायुमण्डल साफ होता है। जो भीषण बहिया (बाड़) निवासस्थानसहित जीवजन्तुओंको बहा ले जाती है, उसीके द्वारा पृथ्वीके ऊपरकी मलिनता (गंदगी) धुल जाती है और उपजाऊ शक्ति बढ़ती है।" ये सब बातें सच हैं। और, यह भी सच है कि कोई भी विप्लव अकारण नहीं होता। देशकी अवस्था और देशकी शिक्षा प्रणालीमें अवश्य ही ऐसा कोई दोष होगा, जिसके कारण विप्लवकारी लोग विप्लव कर
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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