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________________ सुन, सेना ने 'जय भरत' का नारा लगाया सारा पर्वत गज उठा। बार बार जय भरत का नारा लगाया जा रहा था और उसकी प्रतिध्वनि भी सेना का साथ दे रही थी। "भरत १.."व्यन्तरदेव ने भी जय भरत का नारा सुना । भरत नाम से वह पूर्ण परिचित था । उसे यह भी मालूम था कि मैं भरत दिरिविजय के लिये निकले हुये है और अनेक जगहो को बडे बड देव-दानवो ने उसकी दासता स्वीकार भी कर ली है। वही भरत क्या यहाँ भी आया है ? वह चौकता सा पूछने लगा • 'क्या भरत जो यहा आये हैं ???" "हा। यह सेना भरत महाराजको है। इस पर्वत का पूर्ण परि चय प्राप्त करने के लिये, इस पार से उस पार जाने के लिये, रास्तो की जानकारी करने के लिये यह एक छोटा सा अगा सेना का) लेकर मैं 'सेनापति' आगे बढ़े है। पर तुम भरत का नाम सुन । कर चौक क्यो गये।" ____ "मैं • मैं 'हा मैं चौक ही गया · क्या भरत भी यही कही ठहरे हुए हैं ?" "हाँ । वहां उस सिन्धु नदी की सहायक नदी का जो वह किनारा है ना "बस उसी किनारे पर भरत जी अपनी विशाल सेना के साथ विश्राम कर रहे हैं।" "अच्छा तो क्या आप मेरो एक बात मानेगे ?" "कौन सी बात ?" "यही कि मैं जरा भरत जी के दर्शन करके वापिस नाता तब तक आप अागे नहीं बढेगे ?" "क्यो ??" "क्योकि "क्योकि इसमे आपका हित है ?" "हम समझे नहीं ठीक तरह समझानो।" "मैं सब आपको वापिस आकर समझा दगा।"
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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