SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "व्यर्थ की हठ तुम्हारे लिये हानिकारक होगी।" "यह तो समय बतायेगा। अब जो कुछ भी कहना है सामने आकर कहो " तभी एक विशाल काय, विकराल रूप का दानव समक्ष आया। जैसे पहाड पर एक पहाड और आ गया हो । मोटी मोटी सफेद आखे जिनमे जैसे चिराग जल रहा हो । विखरे लम्बे काले काले शिर के बाल, हाथी से भी भारी विशाल शरीर, काला कलूटा शरीर से रग । दाँत बडे बडे जो मुह से बाहर निकलने का प्रातुर थे। सेनापति ने उसे देखा पर हिम्मत को परस्त नहीं होने दिया। "पूछ बैठा" ___ कौन हो तुम?" "मैं इस पर्वत का रक्षक-त्यन्तरदेव हूँ। अपनी विजय की है । अभिलापा से आज तक कोई भी मानव इस पर्वत पर नहीं आ पाया सब ने इस पर्वत को दूर से ही नमस्कार किया है । इसलिये तुमसे भी मेरा यही कहना है कि यदि तुम अपना और अपने साथियो का हित चाहते हो तो वापिस लौट जायो" एक भयकर गरजना - के साथ उस प्रत्यक्षदानव ने कहा। इतना सुनते ही सेनापति अट्टहास कर पडा । उसने कहा " "कायर देव । अपनी चुपडी वातो का यहाँ कोई प्रभाव नहीं होने का हट जानो रास्ते से । वरना अपना सारा देवत्व मिट्टी में मिलता तुम्हे देखना पडेगा।" "क्या कहा ???" वह कन्तरदेव गरज उठा । बरस उठा और क्रोध की आग उगल उठा। ___"यो गरजने, बरसने से भी हमारे पर कुछ भी असर नहीं होगा। तुमसे भी विशाल विकराल मेघो की गरज, वरस से हमने हार नहीं मानी है । हट जाम्रो सामने से।" सेनापति की इस प्रोज भरी वीरता भरी निडर ग्रादाज को
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy