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________________ लोग उसको "करकड़' के नाम से पुकारते थे । पुत्र के मुख अवलोकन करने को बाधा से पद्मावती प्रत्यह चडाल के घर जाती पोर प्रपने पुत्र दत्तापकर्षिक या करकंडु को भिक्षालन्ध मिष्टान्नादि प्रदान करती । खः बरस की उम्र में पिता के प्रादेश से करकडु श्मशान के कार्यों में नियुक्त रहा। एक दिन जब बहु श्मशान की रक्षा में नियुक्त था तब उसको एक साधु का दर्शन मिला । सांधुने उस श्मशान में उगे हुये शुभलक्षणयुक्त एक बास को दिखाकर कहा "मूल से चार प्रगुल के परिमाण से जो इस ब्रास को ले कर अपने पास रखेगा उसको जरूर राज्य मिलेगा ।" करकडुने वह बासका टुकड़ा अपने पास रक्खा, श्रीर नियतकाल में उनको दतिपुर का राज्य प्राप्त हुषा । अन्तमे वह अपने पितृराज्य चम्पाके भी अधिकार हुये थे । उन्होंने कलिंग एव दक्षिण भारत में जैनधर्मकी प्रभावना को थी। इस प्राख्यान से कलिगमें जैनधर्मकी प्राचीनता का बोध होता है । -25
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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