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________________ के लिये सम्यासिनी ने कहा " संसार सुख यथार्थ सुख नहीं है. वे केवल सुखाभास मात्र हैं । प्रत प्रत्येक सासारिक क्लेश से निस्तार पाने के लिये त्यागवत के प्रबलबन से प्राध्यात्मिक चिन्तवन करना ही श्रेयष्कर है । साध्वी के सदुपदेश से वैराग्य प्राप्तकर पद्मावतीने उनसे दीक्षा ली थी । व्रतविघ्न के भयसे उन्होंने अपने गर्भ के बारेमें कुछ प्रकाश नही किया था। एक महीने के बाद गर्भवृद्धि होने से जंन सन्यासिनी ने उसके बारेमें प्रश्न किया । पद्मावती ने "मेरा यह गर्म पहले से ही रहा है, किन्तु व्रतविघ्न के भयसे मैंने उसे प्रकाशित नही किया था ।" लोकापवाद के मयसे उन्होने पद्मावतीको एकान्त स्थान में रखवा दिया । ठीक समय पर एक पुत्र पैदा हुआ। रानीने शिशुको रत्नकबल से प्राच्छादित करके पिता के मुद्राकित नाम के साथ श्मशानमें त्याग दिया । स्मशान का मालिक जनसगम ( चंडाल ) ने शिशुको उसी अवस्था में देख उसको लेकर अपत्य शून्या अपनी पत्नी को समर्पित किया । सब जानकरभी पद्मावती ने जैन सन्यासिनी को पाशमृत पुत्र जात होने का सम्बाद प्रेरण किया था । अलौकिक तेजस्वी दत्तापकर्णिक ( नामक वह बालक ) जनसंगम के घर में बढने लगा । जननीप्राण के आवेग से पद्मावती प्रत्यह पलक्ष्य में रहकर बालक की गतिविधियों को लक्ष्य करती और कभी कभी चंडालिनी के साथ मधुर मालाप व्यस्त रहती । दत्तापकणिक क्रमश: महा-तेज से शोभने लगा । प्रत्यह वह पडोसी बालकों के साथ खेलता रहा। गर्भधारण के दिन से लेकर शाकादि भोजन के कारण उस बालक को कंडु बलता नामक दोष था । अपनी चेष्टासे तथा साहाय्यकारी क्रीडासंगियों के द्वारा शरीर का कंडु दूर करवाने के कारण
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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