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________________ अजके माने बकरा है । और मुनियों ने कहा- नही, प्रज का अर्थ अनाज है । उपरिचर वसु, जिन्होंने प्राकाश में सचरण करने को शक्ति प्राप्त को था, उस रास्ते से गुजरते थे। दोनो पक्षो ने उन्हे मध्यस्थ माना। उन्होंने पहले यह देखा कि किस पक्ष का मत क्या है । फिर कहा-पशुत्रत्र हो ठोक अर्थ है । ऋषियो ने उनकी स्पष्ट पक्षपातिता देखकर उन्ह अभिशाप दिया। अभिशप्त अवस्थामे नारायणीय धर्म या ऐकान्तिक धर्मकी उपासना करके वे शापमुक्त हुए 1 लगता है - यह ऐकान्तिक धर्म फारसका है। खूब सम्भव अहूरमेजदा का धर्म है । उसी उपाख्यानमें इसके प्रमाण है । बादको जरूर यही धर्म उधर ईसाईधर्म और इधर वैष्णवधर्म का रूप लेकर प्रकाशित हुआ है । ईसाईधर्मके मूलमे जैनधर्म को कृच्छ्रसाधना के समान तपस्या और सयम है । थेरपूर्तिक (Thera Peutics) और पालेस्ताईन के उस जमानेके एसीन इसके उदाहरण है । लेकिन निराभिष भोजन उसमें स्थायी बन न सका । इधर यह ऐकान्तिकधर्म वैष्णवधर्म या भक्तिधर्म हो गया है । अबभी इस देशमें जैनधर्मियों के अलावा वैष्णव ही निरामिषके उपासक है। इसमें वह और समझने की आवश्यकता नहीं है, यह जैनधर्मका प्रभाव है । सिर्फ इतना ही यहां कहना है कि इस वैष्णवधर्म के समान धर्म या सपूर्ण प्रात्मसमर्पण करने का धर्म जैनदर्शनके ऊपर प्रतिष्ठित नहीं है । यह हो नही सकता । फिर भी जैनधर्मके प्रभाव देखने में यह खूब उपादेय है । इस तरह जैनधर्म ससार के सारे धर्म तथा मानविक आत्मविकासके मूलमें है । कहाजा सकता है कि इसी के ऊपर मानव-समाज के विकास की प्रतिष्ठा प्राधारित है । भुवनेश्वर ६-५८ } नीलकंठ दास
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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