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________________ होने के बहुत ही पहले दूसरी सभ्यजातिके लोग उसी करका मोलके दक्षिण तीरसे प्राकर इधर भारत और उधर बेबिलोन मादिमें फैले हुये थे। इनका सम्पर्क और मादान-प्रदान उस जमाने में बड़ा ही घनिष्ठ था। अब मालूम होता है कि मातृदेवीधर्म या शक्तिधर्म के समान जैनधर्मके प्रथम अध्यात्म धर्म होने पर भी, उनके काम-खास कर यह जैनप्रादर्श तथा जैनसाधना मार्ग प्राग्वैदिक भारतमें, अर्थात् उस सभ्यजातिके द्राविडोमे से विकसित हो कर पृथ्वी में व्याप्त हुमा था । लक्ष्मीनारायण जी ने उत्कल तथा भारतके प्राचार-व्यवहार में जैनधर्म के पूर्ण प्रमाव का होना दिखाया है। विशेषतः इसके संबध तत्त्वव्याख्या करते हुए उन्होने जैन हरिवंश से नारद और पर्वत के उपाख्यान को लेकर एक अच्छा उदाहरण दिया है। उपस्थिर बसु यह एक अत्यत प्रदर्शक उपाख्यान है । और नारद और पर्वत का झगडा था यज्ञ में व्यवहृत 'प्रज' को लेकर। पर्वत का कहना था- 'प्रज' का अर्थ है वकराया पशु, अत' पशुवष ही यज्ञका प्राण है । नारद ने इसे स्वीकार नही किया । उन्हो ने बताया कि अज के माने जिससे कुछ जात नहीं होता, अर्थात् पुराना अनाज । यहा हिंसा-अहिंसा-मूलक सामिष और निरामिष खाद्य का भद प्रकीर्तित है। धर्म कौन-सा है ? निरामिष भोजन या सामिषभोजन ?भारत में यह समझानेकी कोई जरूरत नही । भारतमें सामिष भोजियो के होते हुए भी निगमिष हर एक का पवित्र और धर्मसम्मत भोजन माना हुमा है महाभारत के नारायणीय उपाख्यानमे राजा अपचिर बसुको पर्चा है । देवताप्रो और मुनियोका यही झगडाथा । देव कहते * वनपर्व-३३६ अध्याय से (बगबासी संस्कार)
SR No.010143
Book TitleUdisa me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Shah
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1959
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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