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________________ भाव की शुद्धता आचार-विचार और भावों की शुद्धता द्रव्य, क्षेत्र और काल की शुद्धता का महत्त्व है, किंतु उससे अधिक महत्त्व है भाव की शुद्धता का, आचार-विचार की पवित्रता का 38 वास्तुविद्या के अंतर्गत किसी भी प्रकार का निर्माणकार्य हो, वह निर्माता की रीतिनीति को प्रभावित कर सकता है, उसके आगामी जीवन को नया मोड़ दे सकता है। भावो की शुद्धता यानी आचार-विचार की पवित्रता निर्माता को अनैतिक या अवैध कार्य से रोकती है, जिससे उसमे आत्म-विश्वास का सचार होता है। अवैध निर्माण करके कोई भी व्यक्ति निर्भय निश्चित नही रह सकता, जिसके फलस्वरूप उसकी प्रगति मे रुकावट आती है। निर्माण कार्य मे निर्माता के तन-मन-धन लगते है। तन-मन-धन शुद्ध होगे, तो निर्मित मकान आदि भी शुद्ध होगा यानी शुभ फल देगा 39 वरना अशुभ फल देगा। आचार-विचार की पवित्रता ही निर्माता का वह बल है, जिसके द्वारा वह स्थपति आदि कारीगरो और मजदूरो से यथोचित काम ले सकेगा । कारीगरों की निष्ठा इसीप्रकार निर्माण कार्य मे लगे मजदूर, कारीगर आदि कुशल और ईमानदार तो हो ही, सदाचारी भी हो; क्योकि उनके सदाचार- दुराचार का असर उनके खून-पसीने से बने निर्माण पर अवश्य पड़ता है, जिसका फल निर्माता को मिलता है। मजदूरो, कारीगरो आदि के आचार-विचार की जॉच कुछ कठिन तो है, फिर भी वह बहुत जरूरी है । वास्तु-विद्या मे कारीगर चार श्रेणियों मे रखे गए है: 1. स्थपति या सूत्रधार यानी मुख्य आर्किटेक्ट 2. सूत्रग्राही (सूत्रधार) का मतलब है इजीनियर या ड्राफ्ट्समैन, जो नक्शे, ले-आउट प्लान, रेखाचित्र आदि बनाता है, 3 तक्षक, लकडी, पत्थर आदि को आवश्यक आकार मे तराशता (जैन वास्तु-विद्या 34
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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