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________________ है; और 4. वर्धकि उन पर देवों, मनुष्यों, पशु-पक्षियों, फूल-पत्तियों आदि की आकृतियाँ उकेरता है और लकड़ी का काम, भीतरी साज-सज्जा आदि करता है। साहित्य मे अनेक स्थपति आदि कारीगरो के नाम उल्लिखित हुए हैं। सैकड़ों शिलालेखो में उन्होंने अपने नाम उत्कीर्ण कर दिये हैं। ऐसे लगभग एक सौ कारीगरों के नाम डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल ने सकलित किए हैं, जिनमें अनेक जैन थे। वास्तु-विद्या मे स्थपति की जॉच पर बहुत बल दिया गया है, क्योकि वह निर्माता की रुचि और विचारों को मदिर, मकान आदि के रूप मे साकार करता है; निर्माता के धन को अधिक-से-अधिक सार्थक करता है; सभी कारीगरो, मजदूरों आदि से विधिवत् काम लेता है। उसमे चार मुख्य गुण अवश्य होने चाहिए: शास्त्रज्ञान, कार्यकुशलता, प्रज्ञा और सील । स्थपति के गुण शास्त्रज्ञान स्थपति का पहला गुण है। गणित, ज्योतिष, प्रतिष्ठा, पुराण आदि के ज्ञान से वास्तु-विद्या को पूर्णता मिलती है; इसलिए उसका शास्त्रज्ञान जितना विस्तृत और गभीर होगा; वह उतना ही शास्त्रानुकूल, सुदृढ, सुंदर, सुविधा सम्पन्न निर्माण कर सकेगा। कार्य-कुशलता यानी काम करने-कराने की कला भी स्थपति का मुख्य गुण है। निर्माण को निर्धारित बजट मे, योजना के अनुसार, ठीक समय पर सपन्न कराने का दायित्व स्थपति का होता है। इस दृष्टि से स्थपति की तुलना सेनापति से की गई है। स्थपति के कार्यों और दायित्वो की व्याख्या वास्तु-विद्या मे बहुत विस्तार से की गई है। प्रज्ञा का अर्थ है प्रतिभा या टेलेट, कल्पना-शक्ति या विजन। यह वह गुण है, जिसके बिना कोई भी स्थपति असफल ही रहेगा। प्रज्ञावान स्थपति निर्माण मे वह आकर्षण पैदा करता है, जो खिलते-महकते फूल मे होता है। शील अर्थात् सदाचार के बिना अच्छे-से-अच्छा स्थपति वैसा ही है, जैसे समुद्र का जल। अपने निर्माता के प्रति निष्ठा, वफादारी, ईमानदारी, दायित्व की भावना, कार्य-कुशलता आदि गुणो का विकास शील के शुद्ध वातावरण में ही सभव है। निर्माता के साथ स्थपति तभी चल सकता है, जब वह शीलवान हो। उसके खून-पसीने मे सदाचार होगा, तो उसके द्वारा (जैन वास्तु-विद्या
SR No.010125
Book TitleJain Vastu Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopilal Amar
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1996
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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