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________________ विवेचन से सिद्ध है कि निर्गुणवादी संतों के अहेतुक प्रेम पर सूफियों का नहीं, अपितु उस श्रमणधारा का प्रभाव था, जो कबीर से सदियों पूर्व चली आ रही थी। जैन साहित्य में 'सतगुरु' पूर्णरूप से प्रतिष्ठित है । उसकी महिमा यहां तक बढ़ी कि पंचपरमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, और साधु ) को 'पंचगुरु' की संज्ञा से अभिहित किया गया है । जहां कबोर ने गोविन्द और गुरु को दो बताया, वहां जैन प्राचार्यों ने दोनों को एक कहा । उनकी दृष्टि में गोविंद ही गुरु है । एक शिष्या ने कहा कि मैं उस गुरु की 'शिष्यानी' हूँ, जिसने दो को मिटाकर एक कर दिया ।' प्रात्म और अनात्म के भेद को मिटाने वाला ही गुरु है ।२ केवल ग्रंथों का पारायण करने वाला गुरु नही है। कबीर ने भी केवल ग्रन्थ पढ़कर गुरु बनने वाले की निर्रथकता घोषित की है । गरु वह है जो ब्रह्म तक पहुंचने का रास्ता दिखाये अथवा जिसके प्रसाद से ब्रह्म प्राप्त किया जा सके । रास्ता वही दिखा सकता है, जिसके पास ज्ञान का दीपक हो यह दीपक कबीर के गुरु के पास था और जैन गुरु तो दीपक रूप ही था । जीव लोक और वेद के अन्धकार से ग्रस्त पथ पर चला जा रहा था, आगे 'सत्गुरु' मिल गया, तो उसने ज्ञान का दीपक दे दिया, मार्ग प्रकाशित हो उठा और वह अभीष्ट स्थान तक पहुंचने का रास्ता पा गया । आचार्य देवसेन का भी कथन है कि अन्धकार में क्या कोई कुछ पहचान सकता है ? गुरु के वचन-रूपी दीपक के बिना प्रकाश ही न होगा, तो फिर देखना कैसे हो सकेगा, पहचानना तो दूर रहा ।' अनदेखा १. वे भजे विणु एक्कु किउ मणह ण चारिय विल्लि । तहि गुरुवहि हउं सिस्सणी अण्णहि कमिण लल्लि ।। -पाहुडदोहा, १७४ वां दोहा, पृ० ५२ । २. गुरु दिणयरु गुरु हिमकर णु गुरु दीवउ गुरु देउ । अप्पापरहं परपरह जो दरिसावइ भेउ । -वही, प्रथम दोहा, पृ० १ । ३. पीछ लागा जाइ था, लोक वेद के माथि । प्रागं थे मतगुरु मिल्या दीपक दीया हाथि ।। -गुरुदेव को अग, १२ वा दोहा, कबीर-साखी-सुधा, पृ०६। ४. तं पायडु जिणवरवयणु, गुरुउवएसई होइ । अधार विगु दीवडई अहव कि पिछइ कोइ ।। –सावयधम्मदोहा, छठा दोहा, पृ० ।। 155555575555 FOR
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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