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________________ स्वतः ही मिल जाता है, जिसकी उसे प्राकांक्षा रहती है । किन्तु भक्त प्राकांक्षारहित होता है, निष्काम होता है, कुछ न देने वाले का दर्शनाकांक्षी निष्काम होगा ही, यह सत्य है । किन्तु उसे ब्रह्म को देखने की इच्छा तो रहती है । वह सांसारिक इच्छा में न गिनी जाने के कारण 'कामना' नहीं कहलायगी । श्रर्थ यह है कि पहले तो जैन भक्त के निष्काम होने से ही शर्त वाली बात नहीं टिक पायेगी, फिर यदि टिकाई भी जाय, तो किसके सहारे ? जो सब कुछ झाड़कर मोक्ष में जा बिराजा हो, उसे तुम्हारे भले बुरे से क्या तात्पर्य । उसके पास अपने गुण हैं, उन्हें तुम चाहो प्राप्त करलो, वे तुम्हारे पास भी हैं --छिपे पड़े हैं, ढूंढ लो । अर्थात् शर्त को कहीं स्थान नहीं, एक जैन भक्त ने खीझकर लिखा- तुम प्रभु कहियत दीनदयालु, श्रापन जाइ मुक्ति में बैठे, हम जु रुलत जग-जाल ।' जैन ब्रह्म क्या करे, जब उसे विदित है कि उसने तुम्हें जगजाल में नहीं रुलाया, फिर उसे जग जाल से निकलने की प्रेरणा दे सकते हैं, जो निकल चुके हैं, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । बताइये ऐसों से आप क्या शर्त लगायंगे । तो, शर्त का मूल हो जैन परम्परा में नहीं है । इसके विपरीत जो अपने मन को बिना शर्त निःस्वार्थ भाव से ब्रह्म में केन्द्रित करता है, वह भी वैसा ही हो जाता है । पिछले पृष्ठों पर परमानन्द, सुख और परमगति पाने की बात लिखी है, वह मन को परमात्मा में ध्यानस्थ करने से ही सम्भव हुआ था । परमात्मा परमानन्द का ही बना है । वह उसका स्वरूप है । योगीन्दु ने यहां तक लिखा कि जो परमात्मा है, वह ध्यान का विषय होगा ही । योगीवृन्द भी उस ज्ञानमय परमात्मा का ध्यान लगाता है । 3 ध्यान के बिना तो हरि-हर भी अपने ही अन्दर रहने वाले ब्रह्म को नहीं देख पाते । कबीर की भांति ही योगिन्दु ने लिखा था कि अन्य सब भावों को छोड़कर हे जीव ! अपनी आत्मा की ही भावना करो। वह श्रात्मा, जो आठ कर्म और सब १ देखिये धानत पद संग्रह, कलकत्ता, ६७ वां पद, पृ० २८ । २. एयहि जुत्तउ लक्खराहि जो पर रिक्कुल देउ । सो तहि रिवस परम पइ जो तइलोयहँ भेउ || ३. जोइय विदहिं गाणमउ जो मोक्खहं कारण अरणवरउ सो -- परमात्मप्रकाश, १२५, पृ० ३२ । भाइज्जइ भेउ । परमप्पउ देउ || - वही, १1३६, पृ० ४३ । 55555555७७ 555555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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