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________________ 0000000 पड़ता है । यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उस पर अंगारे दहकाये जायेंगे ।"" कुछ का तात्पर्य है कि सभी सांसारिक सुख-सुविधाओं की बलि देकर मन को ब्रह्म में लीन करना चाहिए, अन्यथा विकृत विश्व में फंसे रहने के कारण उसे नारकीय दुख झेलने होगे । ब्रह्म में मन समो देने से मलीमस स्वतः ही रह जायगा । ऐसा नहीं है कि हमने मन दिया, तो ब्रह्म ने पवित्रता । कबीर में लेन-देन वाली बात नहीं थी । कबीर ने ऐसी शर्त कभी नहीं लगाई । 'मन दिया मन पाइये, मन बिन मन नहि होई । 2 में केवल मन के उन्मुख होने की बात है, शर्त की नहीं, मन को संसार से उन्मन करके निरंजन में खपाना मूलाधार है । 4000 बिना शर्त मन निरञ्जन में लगाने की बात जैसी जैन परम्परा में देखी जाती है, अन्यत्र नही । जैन सिद्धांत के अनुसार शर्त का निर्वाह नहीं हो सकता । जैन भक्त जिस ब्रह्म की आराधना करता है, उसमें कर्त्तव्य - शक्ति नहीं है । वह विश्व का नियन्ता नहीं है । उसे किसी की पूजा और निन्दा से कोई तात्पर्य नही है । फिर भी, उसके गुणों का स्मरण चित्त को पवित्र बनाता है - पापों को दूर करता है । ब्रह्म के कुछ न करते हुए भी, उसके स्मरण मात्र से ही पवित्रता मिलती है और उसमें शुभ कर्म बनते हैं, जो इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की ही विभूति देने में समर्थ हैं । इस भांति जैन भक्त के ब्रह्म में केवल प्रेरणा देने वाला कर्त्तव्य होता है । अर्थात् उसके मूक और अकर्ता व्यक्तित्व में इतनी ताकत होती है, जिसके स्मरण या दर्शन मात्र से भक्त को वह सब कुछ १. इस मन को बिसमल करो, दीठा करौं दीठ । जे सिर राखौ आपणों, तौ पर सिरिज अ गीठ ।। २. मन दीयां मन पाइए, मन उनमन उम ग्रड ३. न -- कबीर साखी -सुधा, मन को अंग, छठा दोहा || मन बिन मन नही होइ । ज्यू अनल अकासां जोई || - देखिये वही ६ वा दोहा । पूजार्थत्व वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे ( ? ) । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः || - प्राचार्य समन्तभद्र स्वम्मूस्तोत्र, १२/२ फफफफफफाक फफफफफफ
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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