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________________ श्रानन्दसूरि ने भी अमृत का श्राचमन किया था। जिस अमृत के प्रानन्द की बात हिन्दी के जैन और अर्जन कवियों में इतनी प्रसिद्ध है, उसका पूर्वस्वाद अपभ्रंश कवि ले चुके थे। मुनि श्रानन्द तिलक ने लिखा है कि ध्यान रूपी सरोबर में अमृत रूपी जल भरा है, जिसमें मुनिवर स्नान करते हैं और भ्रष्टकर्मों को धोकर निर्वारण में जा पहुँचते हैं। इन्हीं मुनि ने एक दूसरे स्थान पर लिखा है कि परमानन्द-रूपी सरोवर में जो मुनि प्रवेश करते हैं, वे अमृतरूपी महारस को पीने में समर्थ हो पाते हैं; किन्तु गुरु के उपदेश से । २ मुनि रामसिंह ने ब्रह्म को श्रमर कहकर उसे अपनाने का आग्रह किया है । अर्थात् उसके प्रमृतरूप की महिमा गाई है । योगन्दु ने अमृत-सरोवर को दृष्टान्त के द्वारा प्रकट किया है । उन्होंने लिखा है- "ज्ञानियों के निर्मल मन में अनादिदेव उसी प्रकार निवास कर रहा है, जिस प्रकार सरोवर में हंस लीन रहता है । सभी कुछ अनादि हैं, हंस भी और सरोवर भी । ४ परमात्मप्रकाश में ब्रह्म का 'अजरामर' विशेषरण तो एकाधिक बार प्रयुक्त हुआ है । हृदयरूपी सरोवर में हंस के विचरण करने की बात तो महचन्द ने भी लिखी है । मध्यकालीन संत कवियों ने अपने बह्म को सभी पौराणिक देवों के नाम से पुकारा है । किन्तु उनका अर्थ पुराण-सम्मत नहीं था । कबीर का राम निरञ्जन है । वह निरञ्जन, जिसका रूप नहीं, आकार नहीं, जो समुद्र नहीं, पर्वत नहीं, धरती नहीं, श्राकाश नहीं, चन्द्र नहीं, पानी नहीं, पवन नहीं - अर्थात् १. कारण सरोवरु अमिय जलु मुरिणवरु कहइ सव्हाणु । शुभ कर्म मल घोहि श्ररणंदा रे ; रिणयठा पांहु शिव्वाणु ॥ - श्रामेर - शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति ५ व पद । २. परमारणंद सरोवरह जे मुरिण करइ प्रवेसु । अमिय महारसु जइ पिवई आरणदा ! गुरु स्वामिहि उपदेसु || -- वही, २६ वाँ पद । ३. देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बभु सो अप्पारण मुलेहि ॥ - पाहुड़दोहा, ३३ वाँ दोहा, पृ० १७ । ४. यि मरिण रिणम्मलि पारिणयह रिणवसइ देउ भगाइ । हंसा सरवरि लीणु जिम मठ एहउ पsिहाइ || ---परमात्मप्रकाश, १।१२२, पृ० १२३ । ५. महचन्द, दोहापाहुड़, धामेर-शास्त्र भण्डार की हस्तलिखित प्रति ३२ व पद्य । 55555555555555555
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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