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________________ a RA SAKer सभी दृश्यमान पदार्थों से विलक्षण ।' उनका विष्णु वह है, जो संसार रूप में विस्तृत है, उनका गोविन्द वह है, जिसने ब्रह्माण्ड को धारण किया है, उनका खुदा वह है, जो दस दरवाजों को खोल देता है, करीम वह है, जो इतना सब कर देता है, गोरख वह है, जो ज्ञान से गम्य है, महादेव वह है, जो मन को मानता है, सिद्ध वह है, जो इस चराचर दृश्यमान जगत् का साधक है, नाथ वह है, जो त्रिभुवन का एकमात्र पति या योगी है। जैन महात्मा मानन्दघन ने भी अपने ब्रह्म के ऐसे ही ऐसे अनेक पर्यायवाची दिये हैं। उन्होंने भी इनका पौराणिक अर्थ नहीं लिया है। उनका राम वह है, जो निज पद में रमे, रहीम वह है, जो दूसरों पर रहम करे; कृष्ण वह है, जो कर्मों का क्षय करे; महादेव वह है, जो निर्वाण प्राप्त करे; पार्व वह है, जो शुद्ध प्रात्मा का स्पर्श करे; ब्रह्म वह है, जो प्रात्मा के सत्य रूप को पहचाने । उनका आत्मब्रह्म निष्कर्म,निष्कलंक और शुद्ध चेतनमय है। इससे स्पष्ट है कि कबीर और प्रानन्दघन दोनों का ही राम दशरथ का पुत्र नहीं था। वह अवाड्. मनसगोचर था। आत्मा को अनेक नाम से पुकार कर उसे अमूर्त, अलक्ष्य, अजर, अमर घोषित करने वाली जैन परम्परा अति प्राचीन है। प्राचार्य मानतुग ने 'भक्तामरस्तोत्र' में जिनेन्द्र को बुद्ध कहा, किन्तु वह बुद्ध नहीं, जिसने कपिलवस्तु में राजा शुद्धोदन के घर जन्म लिया था; अपितु वह, जो (विवुधाचितबुद्धिबोधात्) बुद्ध है। उन्होने शंकर भी कहा, किन्तु शंकर से उनका तात्पर्य 'श' करने वाले से था, प्रलयङ्कर शंकर से नहीं । उनका जिनेन्द्र धाता भी था, किन्तु शिवमार्गविरोधेविधानात् होने से धाता था। सब पुरुषों में उत्तम होने से ही उनका नाम भगवान् पुरुषोत्तम था ।२ प्राचार्य भट्टाकलक ने अकलंकस्तोत्र में ऐसे ही १. कबीर-ग्रन्थावली, २१६ वा पद । २. कबीर-ग्रन्थावली, ३२७ वा पद । ३ निज पद रमे राम सो कहिये, रहिम करे रहेमान री। करशे कर्म कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री ।। परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। इह विध साधो प्राप प्रानन्दघन, चेतनमय निःकर्म री ।। -प्रानन्दघन-पदसग्रह, प्र० अध्यात्मज्ञान-प्रसारक-मंडल, बम्बई, पद ६७ वाँ। २. बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधा स्त्व शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । घातासि धीर ! शिवमार्गविधेविधानाद्व्यक्त त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥ --भक्तामरस्तोत्र, २५ वा पद्य । S 55 55 55 55 55 55 55 55 55 55 55
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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