SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५१५ ] बेल्लूरका लेख पिछला माग २६ थादरहित नीबू मत संरक्षण्यकर्त रागि वुद्धविसिदधा यो३० गनिष्ठरादनिंद यी देवस्थानवनू पुनः जीर्णोद्धारव मादि ३१ संप्रोक्षणे प्रतिष्ठेयन् माडि देवता नित्य वैभव सावं ३२ कालवु नढदुआ सुकृत नमगु बुंतागुव रीतिगे नडसिधिरागि ३३ अदु निमित्य आ महोत्सवाकालदल्लि निगमे नम्म सिरेहद सीमे३४ योलगण संते दोड्डेरि होबलि गूडिद बहुवन हलिस्थ३५ दोलगण आपिनहल्लियन् सहिरण्योदकदानधारा३६ गृहीतवागि त्रिवाचवु त्रिकरणयुक्तवागि धारेयने३७ रदु कोट्टेवागि आ ग्रामछे सलुवंता यरेनेल कॅनेलका३८ डारम्भ नीरारम्भ अणे अच्चुकट्टु यात कपिले गूडेंगू३६ यिलु केरे कुंटे कालुवे मोदलागि आ ग्रामक्के सलुवंता परिस्तरण४० दोळगागि वुत्पत्ति प्रदता सकल सुवर्णादाय सकलमत्ता४१ दायवन् निम्म सिष्यपारम्पर्यवु अनुभविसि कोंडुसु४२ खदल्लि देंदु बरसि कोह दानपट्टे । स्वदत्ताद्वि - ४३ गुणं पुण्यं परदत्तानुपालनं । परदत्तापहारंण ४४ स्वदत्तं निष्फलं भवेत् ॥ श्रीरामा [ इस दानपत्रकी तिथि भाद्रपद कृ० १०, शक १६०२ रौद्र संवत्सर, ऐसी है : इसमें रंगप्पराजके पौत्र तथा कृष्णप्पराजके पुत्र रायप्पराज द्वारा लक्ष्मीसेन भट्टारकको रत्नगिरिवस्तिके लिए आपिनहल्लि नामक ग्राम दान दिये जानेका उल्लेख है । लक्ष्मीसेनको दिल्ली, कोल्लापुर, जिनकंचि तथा पेनुगोंडे के सिंहासनाधीश कहा है । वे समंतभद्र स्वामीके प्रशिष्य तथा वीरसेन भट्टारकके शिष्य थे । दानदाता रायप्प राजा हरति नगरके प्रमुख थे । उन्हें आत्रेय गोत्रके आपस्तंबसूत्रानुयायी कहा हैं । [ए. रि. मं. १९३९ पृ. १८७ ]
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy