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________________ लेखों में मिलता है। भवणवल्गोल से प्राप्त सन् १९२३ के एक लेख से शात होता है कि एक समय इस वंश के प्रतक प्रथम पुरुष सल से एक जैन मुनि ने एक कराल व्या को देखकर कहा कि-पोय्सल-हे सल ! इसे मारो। लेख नं. ४५७ के अनुसार यह घटना इस प्रकार है:- कुन्तल श्रादि देशों का अधिपति, यदुकुल के सल को बनवास देश का मुख्य क्षेत्र दान में देना चाहता था । उस समय सुदत्त मुनिप ने पद्मावती को एक चीते के रूप में प्रकट करवाया। पद्मावती को चीते के रूप में देखते ही उन्होंने सल से कहा-पोय्सल (सल, मारो)। जिस पर उसने चीते को सल ( डण्डे ) से मारा और देवी पदमाबती के समक्ष उसके साहस का प्रदर्शन कराया। इससे राजा का नाम पोयसल पड़ा। इस घटना के उल्लेख से इतना तो मालुम होता है कि सल उस समय एक होनहार। सरदार था जैन प्रतिभा को राज्याश्रय से वचित होते समय यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि वह किसी उदीयमान सरदार को आगे बढाये जो जिनधर्म को पुनः संरक्षण प्रदान करे । इतिहास हमें बताता है कि सचमुच ही इस वंश ने अपने अन्तिम दिनों तक जैन धर्म को आश्रय प्रदान किया था । इस वंश के उद्गम होने के पहले अंगडि एक जैन केन्द्र था यह बात हमें लेख नं. १६६ से ज्ञात होती है। लेख नं० २०१ तथा अन्य लेखों से ज्ञात होता होता है कि इस वंश के शासक अपने को मले परोल गण्ड ( पहाड़ी सामन्तों में मुख्य ) मानते थे, जिससे मालुम होता है कि वे लोग पहाड़ी जाति के थे। यद्यपि प्रस्तुत संग्रह के लेखों से वंश के प्रारम्भ के तीन नरेश-सल, विनयादित्य प्रथम एवं नृपकाम-के सम्बन्ध में विशेष नहीं मालूम होता है पर अन्यत्र उल्लेखों से अनुमान किया जाता है कि ये तीनों नरेश सुदत्त मुनि के प्रभाव में थे। नृपकाम के सम्बन्ध में ले० नं० ३४७ से ज्ञात होता है कि वह विनयादित्य १. जै० शि० सं० प्रथम भाग, ५६, प्रस्तुत संग्रह का २८२ या २८३ वा लेख। २. सालेतोरे, मेडीक्ल जैनिज्म, पृष्ट ६४-७१
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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