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________________ . 'वसुधेकबान्धव' कहलाता था। लेख का विषय है कि श्राहवमल (रायनारायण कलचुरि के शासनकाल में उक्त सेनापति ने मागुरि गांव के रत्नत्रय चैत्यालय के लिए भानुकीर्ति सिद्धान्त देव को तलवे गांव दान में दिया था। लेख नं ४३५ से मालुम होता है कि बिजल के शासनकाल में वीरशैव मत का बोलवाला था। उक मत का प्राचार्य एकान्तदरामय्य जैनों पर अत्याचार कर रहा था ( ४३५, ४३६)। यद्यपि कलचूरि जैन धर्मानुयायी थे, उनके शासन पत्रों पर तीर्थंकर की पद्मासन मूर्ति, इन्द्रादि सेवकों के साथ बनायी जाती थी, पर बिज्जल समय की गति देखते हुए वीर शैवों की ओर मुका,और कहा जाता है है कि उन्हीं के द्वारा उसकी मृत्यु भी हुई । लेख नं० ४६५ से ज्ञात होता है कि उसके सेनापति रेचि ने उसे छोड़ कर जैन धर्मावलम्बी होयसल नरेश वीर बल्लाल द्वितीय का आश्रय लिया था। लेख नं. ४४८ में उल्लेख है कि कुन्तल देश से बिज्जल के शासन को हटाकर बल्लाल होय्सल ने उसे अपने अधीन कर लिया था । इस तरह दक्षिण भारत में इस वंश का शीघ्र ही अन्त हो गया। ७. होय्सल वश:-चालुक्यों के पतन के बाद दक्षिण भारत में दो नई शक्तियों का जन्म होता है । ये दोनों अपने को यादव वंश से उत्पन्न मानते हैं। उनमें चालुक्य साम्राज्य के दक्षिण भाग पर अधिकार करने वाले होय्सल थे और उत्तर भाग पर यादव ( सेऊण )। गङ्ग वंश के समान होय्सल वंश के अभयुदय में जैन प्रतिभा का बड़ा भारी हाथ रहा । जैन गुरुओं ने इस वंश के उत्थान में योग देकर अहिंसा और अनेकान्त की दुन्दुभि को फिर एक बार दक्षिण प्रान्त में बजाया । इस वंश का उत्पत्ति स्थान सोसेवूर (सं० शशकपुर) था जिसे राइस सा० ने वर्तमान अङ्गडि ( मुडगेरे तालुका, कहूर जिला, मैसूर राज्य ) माना है । अंगडि से इस वंश से सम्बन्धित अनेकों लेख भी प्राप्त हुए है। यहीं इस वंश की कुलदेवता वासन्तिका देवी का मन्दिर अब भी विद्यमान है। संभव है यहीं इस वंश.की उत्पत्ति से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई थी जिसका उल्लेख कतिपय कैन
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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