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________________ ले० न०६० के अनुसार उसने अपने राज्य के १३ वें वर्ष में प्राचार्य वारदेव को सम्मति से मूलसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय के लिए कुछ भूमि और कुमारपुर गांव दान में दिया था। ___ माधव द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी को णिवर्म धर्ममहाधिराज अविनीत था । ले० नं०६४ में इसके प्रतापी होने का वर्णन है । लेख से ज्ञात होता है कि यह जैनधर्मानुयायी था। इसने अपने गुरु परमाईत विजयकीर्ति के उपदेश से अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही मुलसंघ के चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित उरनूर के जैन मन्दिर के लिए एक गाँव प्रदान किया था तथा एक. दूसरे जिनमन्दिर के लिए चुंगी से प्राप्त धन का चतुर्थ भाग दान में दिया था। लु० राइस महोदय उक्त लेख का समय सन् ४२५ के लगभग मानते हैं । यदि उनका यह अनुमान सच है तो कहना होगा कि अविनीत सन् ४२५ के लगभग राजगद्दी पर बैठा था । अविनीत ने बहुत समय तक शासन किया था क्योकि उसके बेटा दुर्विनीत का समय अनेक प्रमाणों के अाधार पर लगभग सन् ४८० और ५२० ई० के बीच बैठता है । अविनीत जैनधर्मानुयायी था यह बात मर्करा से प्राप्त ताम्रपत्रों (६५) से भी सिद्ध होती है। १. जैन धर्म के केन्द्र प्रकरण में हमने इन वीरदेव और सोनभण्डार के वैरदेव मुनि में साम्य स्थापित किया है । २. प्रो० ज्योतिप्रसाद जैन, 'गङ्गनरेश' दुर्विनीत का समय', जैन एन्टीक्वेरी, भाग १८, अंक २, पृष्ठ १-११ । ३. मर्करा से प्राप्त ताम्रपत्र असली नहीं है क्योंकि उनमें पश्चात्कालीन अकाल वर्ष पृथ्वीवल्लभ ( राष्ट्रकूट नरेश) का निर्देश है तथा जो प्राचार्यपरम्परा दी गई है वह ई०६-१० वीं शताब्दी की मालुम होती है। लेख में समयोल्लेख के साथ यह निर्देश नहीं है कि वह किस (शक या विक्रम ) संवत् का है।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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