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________________ ७६ नरेश का माम, दडिग को शि देते हैं और उसका समय सन् १कार-२०० के खरामय मानते हैं। प्रस्तुत संग्रह में इस वंश का सबसे प्राचीन ले० नं०६० है, जिसे गुप्त काल के प्रारंभ का होना चाहिये । इसमें कोड णिवर्मा प्रथम से माधववर्मा द्वितीय तक पाँच नरेशों की वंशावली दी गई है यदि प्रथम राजा के राज्य का प्रारंभ समय ई० सन् २०० के लगभग मान लिया जाय और प्रत्येक नरेश को ३५-४० वर्ष या उससे कुछ अधिक वर्ष का राज्यकाल दिया जाय ( जो कि संभव है ) तो लेख के अन्तिम राजा माधव द्वितीय का समय ई० सन् ३७५-४०० के लगभग या कुछ बाद आता है। उक्त लेख में इस बात का उल्लेख नहीं है कि कोङ्ग णिवर्मा और उसके बाद के दो नरेश किस धर्म के प्रतिपालक थे । पर इस बात का वहाँ स्पष्ट निर्देश है कि तृतीय नरेश हरिवर्मा महाधिराज का उत्तराधिकारी विष्णुगोप नारायण भक्त था और उसका उत्तराधिकारी माधववर्मा त्यम्बकभक्त था । माधववर्मा द्वितीय ने चिर प्रनष्ट देवभोग, ब्रह्मदेय आदि को फिर से संचालित किया था और कलियुग में धर्मोद्धार किया था (६४)। इसका विवाह कदम्बवंशी नरेश काकुस्थवर्मा की बेटी से हुआ था क्योंकि गंगवंश के अनेक लेखों में इसके बेटे अविनीत को कदम्बनरेश कृष्णवर्मा ( संभव है प्रथम ) का प्रिय भागिनेय लिखा है' (६५, १२१, १२२)। कृष्णवर्मा काकुस्थवर्मा का द्वितीय पुत्र था। त्र्यम्बकभक्त होते हुए भी माधववर्मा दितीय की धार्मिक नीति बड़ी उदार थी। १. मैसूर एण्ड कुर्ग इन्सक्रिप्सन्स पृष्ठ,३२, ४६. २. लुइस राइस महोदय सन्देह करते हैं कि इन ताम्रपत्रों में प्रत्येक राजा के साथ पूर्व निर्धारित या सांचे में ढले हुए के समान जो विवरणात्मक वाक्य दिये हैं, वे संभव है, तथ्य नहीं हैं । वे मानते हैं कि ब्राह्मण प्रभाव के कारण ताम्रपत्र उत्कीर्ण करने वाले ने स्वेच्छा पूर्वक तथ्यों को विकृत कर उनके जैन होने पर पर्दा डाला है। ३. पीछे कदम्बों का परिचय भी देखिये।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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